Tuesday, November 29, 2011

एफडीआई बढ़ाने का आत्मघाती कदम

भारत विश्व की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला देश है। भारत की युवा आबादी विश्व में सबसे अधिक है। इसी कारण से भारत में अन्य देशों के मुकाबले रोजगार सृजन की अधिक आवश्यकता है। हमारे देश में वे उद्योग जो उपयुक्त पूंजी और श्रम के माध्यम से संचालित हो सकते हैं, वे हमारी जनसंख्या को रोजगार के भी अधिक अवसर देते हैं। बजाय उन उद्योगों और व्यवसाय के जो पूर्णतया मशीनों और पूंजी पर आधारित उद्योग हैं। पूंजी और मशीन आधारित उद्योगों में श्रम शक्ति के बजाय पूंजी की प्रधानता हो जाती है।

वर्तमान में जहां यूरोपीय देशों और अमेरिका में आर्थिक मंदी का प्रभाव बढ़ रहा है, जिसका कुछ असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा है। भारत सरकार ने भी देश की अनुमानित विकास दर में कमी रहने की आशंका जताई है। शायद इस आर्थिक गतिरोध से उबरने के लिए ही सरकार ने खुदरा बाजार में 51 प्रतिशत विदेशी निवेश का पैंतरा चला है। सरकार अपने इस कदम से चैतरफा आलोचनाओं के घेरे में आ गई है। सरकार के सहयोगी तथा विपक्षी दलों ने इस मामले में सड़क से लेकर संसद तक आंदोलन किए जाने की चेतावनी दी है।

सवाल यह है कि क्या खुदरा बाजार में विदेशी निवेश से भारतीय अर्थव्यवस्था को गति मिल पाएगी और क्या भारत में बेरोजगारी में कमी आ पाएगी? इसका जवाब सकारात्मक नहीं मिलता है। भारत का 3,82,000 करोड़ का खुदरा बाजार जो सकल घरेलू उत्पाद में 14 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखता है और 8 प्रतिशत लोगों को आजीविका प्रदान करता है। इस खुदरा बाजार में यदि विदेशी निवेश को 26 प्रतिशत से बढ़ाकर 51 प्रतिशत कर दिया गया तो खुदरा बाजार के वैश्विक खिलाड़ी देशी लोगों को बेरोजगारी की ओर धकेलने का कार्य करेंगे।

भारतीय खुदरा बाजार में संगठित क्षेत्र की 2 प्रतिशत हिस्सेदारी है, वहीं असंगठित क्षेत्र की हिस्सेदारी 98 प्रतिशत है। असंगठित क्षेत्र में अधिकतर वही लोग कार्यरत हैं, जिन्हें संगठित क्षेत्र में रोजगार का अवसर प्राप्त नहीं हुआ। इसके अलावा वे लोग जो अकुशल श्रमिक की श्रेणी में आते हैं, वे भी खुदरा बाजार में ही कार्य कर रहे हैं। रोजगार के मामले में हताश युवा कम पूंजी के माध्यम से चल सकने वाली कोई छोटी सी दुकान अथवा पान-बीड़ी खोखे के माध्यम से स्वरोजगार को अपनाता है। यही छोटा सा धंधा उसकी आजीविका का साधन बनता है, जिसे सरकार विदेशी निवेश के माध्यम से छीन लेना चाहती है।

फिक्की के अनुसार खुदरा बाजार का संगठित क्षेत्र 5 लाख लोगों को रोजगार के अवसर प्रदान करता है। वहीं असंगठित क्षेत्र के माध्यम से 3.95 करोड़ लोग खुदरा बाजार में कार्यरत हैं। विदेशी निवेश का अर्थ है इतनी बड़ी आबादी का बेरोजगार हो जाना। सरकारी तर्क है कि विदेशी निवेश के बाद रोजगार के अवसरों में और बढ़ोत्तरी होगी, लेकिन वालमार्ट जैसी विशालकाय खुदरा कंपनियों का स्वभाव रोजगार सृजन का नहीं है। इन विशालकाय रिटेल स्टोरों में वही लोग कार्य कर पाएंगे जो मार्केटिंग के फॉर्मूले में प्रशिक्षित होंगे। अर्थात वहां उन अकुशल श्रमिकों के लिए कोई स्थान नहीं होगा, जो खुदरा बाजार में असंगठित क्षेत्र के माध्यम से स्वरोजगार कर रहे थे। गौरतलब है कि भारतीय खुदरा बाजार में 98 प्रतिशत हिस्सेदारी असंगठित क्षेत्र की है।

यदि असंगठित क्षेत्र में कार्यरत लोग बेकार हो जाते हैं तो उनको सरकार कहां खपाएगी इसका कोई एजेंडा सरकार के पास नहीं है। लगता है सरकार आम आदमी को खुशहाल एवं स्वरोजगार में कार्यरत नहीं देखना चाहती, बल्कि उन्हें मनरेगा का मजदूर बनाना चाहती है। विदेशी कंपनियों में कार्यरत कुछ लोग जहां बेहतर पैकेज से खुशहाल होंगे, वहीं देश का बहुजन और आमजन बेरोजगारी और गरीबी से त्रस्त। देश के आम आदमी को मनरेगा का मजदूर और विदेशी कंपनियों को मालामाल करने की आत्मघाती नीति से सरकार को अपने कदम वापस खींच लेने चाहिए।

Monday, November 28, 2011

हिंदी पत्रकारिता के उन्नायक मदन मोहन मालवीय

पंडित मदन मोहन मालवीय। एक देशभक्त, लोकप्रिय शिक्षक, विद्वान राजनीतिज्ञ, प्रखर वक्ता, उच्च कोटि के वकील और हिंदी पत्रकारिता के उन्नायक। जिनका नाम भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। महामना के नाम से लोकप्रिय रहे मालवीय जी ने देश की स्वतंत्रता के आंदोलन को गति प्रदान की। देश में अंग्रेजों के अत्याचारी शासन के विरूद्ध जनता को जागृत करने का कार्य मालवीय जी ने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से किया। जनता की जागरूकता ही आंदोलनों की पृष्ठभूमि तैयार करने का कार्य करती है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए मालवीय जी ने पत्रकारिता के माध्यम से जनचेतना और जनशिक्षण का कार्य किया था।

पंडित मदन मोहन मालवीय का जन्म 25 दिसंबर, 1861 को इलाहाबाद में हुआ था। पिता पंडित ब्रजनाथ संस्कृत के प्रकांड विद्वान और कथावाचक थे। मदन मोहन मालवीय को पिता से विद्वता और माता से सच्चरित्रता जैसे गुण विरासत में मिले थे, जिनका प्रभाव उनके जीवन पर पड़ा। महामना ने अनेक कार्यों के माध्यम से राष्ट्र सेवा की, जिसमें पत्रकारिता का महत्वपूर्ण योगदान है।

पंडित मदन मोहन मालवीय
को हिंदी पत्रकारिता का उन्नायक माना जाता है। जिन्होंने भारतेंदु हरिशचन्द्र के जाने के बाद हिंदी पत्रकारिता में उपजे शून्य को समाप्त किया। सन् 1887 में प्रयाग के निकट कालाकांकर से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र ‘हिंदोस्थान‘ के वे संपादक बने। संपादक का दायित्व उन्होंने हनुमत प्रेस के संस्थापक राजा रामपाल के आग्रह पर संभाला था।

उन्होंने अपने स्वाभिमान और पत्रकारिता के कर्तव्यों के साथ कभी भी समझौता नहीं किया। राजा रामपाल द्वारा संपादक बनने के आग्रह पर उन्होंने राजा साहब के समक्ष दो शर्तें रखीं। वे शर्तें इस प्रकार थीं, कि आप कभी भी मेरे कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगे और नशे की हालत में मुझे कभी मिलने के लिए नहीं बुलाएंगे। राजा रामपाल ने मालवीय जी की इन शर्तों को सहर्ष मान लिया, जिसके बाद ही महामना ने संपादक का दायित्व संभालने की स्वीकृति दी। महामना ने ‘हिंदोस्थान‘ समाचार पत्र को नई ऊंचाईयां प्रदान कीं।

मालवीय जी के संपादकीय सहयोगी तत्कालीन समय के प्रतिष्ठित विद्वान और भाषाविद् थे। जिनमें प्रताप नारायण मिश्र, बाबू शशिभूषण, बालमुकुंद गुप्त आदि प्रमुख थे। महामना के संपादन में ‘हिंदोस्थान‘ समाचार पत्र देश का लोकप्रिय पत्र बन गया। तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक स्थितियों पर उनके लेख व संपादकीय टिप्पणियां लोगों को बहुत भाती थीं। मालवीय जी ने समाचार पत्रों की पत्रकारिता में एक नवीन प्रयोग किया, उन्होंने ‘हिंदोस्थान‘ में गांवों की समस्याओं और समाचारों को भी स्थान दिया। ग्रामीण समस्याओं और विकास के समाचारों को पत्रों में स्थान देने का आरंभ मालवीय जी ने ही किया था। इसके बाद से यह विषय हिंदी समाचार पत्रों के महत्वपूर्ण अंग बन गए।

मालवीय जी ने ढाई वर्षों तक निरंतर ‘हिंदोस्थान‘ के संपादक का दायित्व संभाला। लेकिन एक दिन राजा रामपाल ने महामना को नशे की हालत में किसी विषय पर परामर्श के लिए बुलवाया। राजा साहब से मिलते ही मालवीय जी ने नशे में उनको न बुलाने की शर्त याद दिलाते हुए कहा कि अब मैं एक पल भी यहां नहीं ठहर सकता। राजा साहब ने उनको बहुत मनाया लेकिन वे अपने निर्णय से नहीं डिगे। 1889 में मालवीय जी ने ‘हिंदोस्थान‘ समाचार पत्र को छोड़ दिया।

‘हिंदोस्थान‘ छोड़ने के बाद महामना प्रयाग आ गए और उस समय के प्रसिद्ध अंग्रेजी पत्र ‘इंडियन ओपीनियन‘ से जुड़े। कुछ समय पश्चात् ‘इंडियन ओपीनियन‘ का लखनऊ से प्रकाशित होने वाले पत्र ‘एडवोकेट‘ में विलय हो गया। विलय के पश्चात् भी मालवीय जी ‘एडवोकेट‘ से जुड़े रहे, इसी दौरान उन्होंने पत्रकारिता की पढ़ाई शुरू कर दी। मालवीयजी ने सन् 1891 में एल.एल.बी की परीक्षा उत्तीर्ण की और जिला न्यायालय में वकालत करने लगे। सन् 1893 में उन्हें उच्च न्यायालय में वकालत करने का मौका मिला। उच्च न्यायालय में वकालत करते हुए भी मालवीय जी लेखन के माध्यम से समाचार पत्रों से जुड़े रहे। मालवीय जी की सदैव ही यह आकांक्षा रही थी कि अपने प्रयास से समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया जाए।

सन् 1907 में बसंत पंचमी के दिन हिंदी पत्रकारिता ने नया उदय देखा। यह उदय मालवीय जी के समाचार पत्र ‘अभ्युदय‘ के रूप में हुआ था, यह पत्र साप्ताहिक था। मालवीय जी ने ‘अभ्युदय‘ के लिए लिए जो संपादकीय नीति तैयार की थी, उसका मूल तत्व था स्वराज। महामना ने ‘अभ्युदय‘ में ग्रामीण लोगों की समस्याओं को महत्वपूर्ण स्थान दिया था। जिसका उदाहरण ‘अभ्युदय‘ के पृष्ठों पर लिखा यह वाक्य था- ‘कृपा कर पढ़ने के बाद अभ्युदय किसी किसान भाई को दे दीजिए‘।

मालवीय जी की पत्रकारिता का ध्येय ही राष्ट्र की स्वतंत्रता था, जिसके लिए वे जीवनपर्यंत प्रयासरत रहे। उन्होंने ‘अभ्युदय‘ में कई क्रांतिकारी विशेषांक प्रकाशित किए। इनमें ‘भगत सिंह अंक‘‘सुभाष चंद्र बोस‘ विशेषांक भी शामिल हैं। जिसके कारण ‘अभ्युदय‘ के संपादक कृष्णकांत मालवीय को जेल तक जाना पड़ा, ‘अभ्युदय‘ के क्रांतिकारी लेखों में मालवीय जी की छाप दिखाई पड़ती थी।

गांवों से संबंधित विषयों को समाचार पत्र में स्थान देने के अलावा लेखकों को मानदेय देने का प्रचलन भी मालवीय जी ने ही प्रारंभ किया था। ‘अभ्युदय‘ में प्रकाशित पं महावीर प्रसाद द्विवेदी के लेख के साथ ही उन्होंने लेखकों को मानदेय देने की शुरूआत की थी। उनका यह कार्य इसलिए भी प्रशंसनीय था क्योंकि उस समय ‘अभ्युदय‘ की आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं थी।

मालवीय जीने‘अभ्युदय‘के पश्चात् 24 अक्टूबर, 1910 को अंग्रेजी पत्र ‘लीडर‘ का प्रारंभ किया। मालवीय जी ‘लीडर‘ के प्रति सदा संवेदनशील रहे, डेढ़ वर्ष बीतते-बीतते ‘लीडर‘ घाटे की स्थिति में जा पहुंचा। महामना उस दौरान काशी हिंदू विश्वविद्यालय के लिए धन एकत्र करने में लगे हुए थे, जब ‘लीडर‘ के संचालकों ने मालवीय जी को घाटे की स्थिति से अवगत कराया तो वे विचलित हो उठे। उन्होंने कहा कि, ‘‘मैं लीडर को मरने नहीं दूंगा।‘‘ काशी विश्वविद्यालय की स्थापना का कार्य बीच में ही रोककर मालवीय जी ‘लीडर‘ के लिए आर्थिक व्यवस्था के कार्य में जुट गए। पहली झोली उन्होंने अपनी पत्नी के आगे यह कहते हुए फैलाई कि ‘‘यह मत समझो कि तुम्हारे चार ही पुत्र हैं। दैनिक लीडर तुम्हारा पांचवां पुत्र है। अर्थहीनता के कारण यह संकट में पड़ गया है। तो क्या मैं पिता के नाते उसे मरते हुए देख सकता हूं।‘‘ मालवीय जी के अथक प्रयासों से लीडर बच गया। मालवीय जी ने पत्रकारिता में नए प्रयोग किए और पत्रकारिता को नए आयामों पर पहुचाया। 12 नवंबर, 1946 को महामना मदन मोहन मालवीय को मालवीय जी ने अपने प्राण त्याग दिए, परंतु उनकी स्मृतियां और उनके आदर्श सदैव पत्रकारिता जगत में विद्यमान रहेंगे।

Saturday, November 12, 2011

मीडिया पर नहीं, मीडिया मुग़लों पर हो नियंत्रण

पूर्व न्यायाधीश और भारतीय प्रेस परिषद के वर्तमान अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने मीडिया को भी लोकपाल के दायरे में लाए जाने की राय व्यक्त की है। काटजू के इस बयान को लेकर मीडिया में हलचल है, लोकपाल के दायरे में लाए जाने का कुछ लोग विरोध कर रहे हैं तो कुछ समर्थन। मार्कंडेय काटजू की टिप्पणी मीडिया की स्वनियंत्रण की दलील के परिप्रेक्ष्य में है। काटजू ने कहा कि ‘‘सेल्फ रेगुलेशन कोई रेगुलेशन नहीं है और न्यूज ऑर्गनाईजेशन प्राइवेट संस्थान हैं जिनके काम का लोगों पर गहरा असर होता है, उन्हें जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिए।“

इससे पहले काटजू पत्र के माध्यम से (ब्राडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन) के सचिव एन.के सिंह से भी यह सवाल कर चुके हैं कि क्या न्यूज ब्राडकास्टर लोकपाल के दायरे में आना चाहते हैं। उन्होंने कहा- ‘‘मैं जानना चाहता हूं कि ब्राडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन, जिसके आप सचिव हैं लोकपाल के दायरे में आना चाहते हैं, जिसके संसद के अगले सत्र में पारित होने की संभावना है? ऐसा लगता है कि आप प्रेस काउंसिल आफ इंडिया के दायरे में आने से कतरा रहे हैं तो क्या आप लोकपाल के दायरे में भी नहीं आना चाहते हैं।‘‘ काटजू ने मीडिया की स्वनियंत्रण के अधिकार पर हमला करते हुए कहा कि ‘‘आप स्वनियंत्रण के अधिकार की मांग करते हैं। क्या आपको याद दिलाना पडे़गा कि इस तरह का निरंकुश अधिकार हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को भी हासिल नहीं है।

काटजू ने लिखा कि ‘‘वकील बार काउंसिल के नियंत्रण में हैं और किसी भी पेशेवर कदाचार के लिए उनके लाइसेंस को रद्द किया जा सकता है। इसी तरह, डाक्टरों पर मेडिकल काउंसिल की नजर होती है और चार्टर्ड अकाउंटेंट पर चार्टर्ड की... इत्यादि। फिर क्यों आपको लोकपाल या किसी भी दूसरी रेगुलेटरी अथारिटी के नियंत्रण में आने से एतराज है।“

काटजू ने लिखा कि ‘‘हाल ही में मीडिया ने अन्ना के आंदोलन का व्यापक प्रचार किया। अन्ना हजारे की भी यही तो मांग थी कि नेता, नौकरशाही एवं जजों सभी को जनलोकपाल के दायरे में लाया जाना चाहिए। आखिर किस आधार पर लोकपाल के दायरे में आने से छूट पाना चाहते हैं?‘‘

काटजू ने कड़ी टिप्पणी करते हुए लिखा कि ‘‘स्वनियंत्रण की दलील तो नेता और नौकरशाह आदि भी देंगे। कहीं आप खुद को ‘दूध के धुले‘ होने का दावा तो नहीं करते कि आप पर खुद के अलावा किसी का भी नियंत्रण न हो? यदि ऐसा है तो पेड न्यूज और राडिया टेप क्या था?‘‘

भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष की यह टिप्पणी कठोर जरूर है परंतु विचारपूर्ण भी है। हालांकि मीडिया जगत में उनकी इस टिप्पणी की कड़ी आलोचना भी हुई है, जैसा कि वरिष्ठ पत्रकार वेदप्रताप वैदिक ने उनकी टिप्पणी को ‘‘मीडिया पर नियंत्रण की अनियंत्रित सलाह‘‘ करार दिया। काटजू की यह सलाह व्यावहारिक रूप से मीडिया पर लागू करना उस पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण कहा जा सकता है, परंतु मीडिया में भी एक ऐसा वर्ग उभर कर आया है जिस पर लोकपाल जैसी ही निगरानी किए जाने की आवश्यकता है।

मीडिया का वह वर्ग जो पैसे के आधार पर समाचार का समय और सामग्री तय करने का कार्य करता है। वह समाचारपत्र और समाचार चैनल जहां प्रशिक्षण के नाम पर नवोदित पत्रकारों का शोषण और उनसे पैसे लेकर पत्रकार बनाने का दावा किया जाता है, उन पर भी लोकपाल अथवा ऐसे ही किसी व्यवस्था की आवश्यकता जान पड़ती है। दरअसल, मीडिया में नियामक व्यवस्था लागू करने में मीडिया के विभिन्न पहलुओं पर विचार करना आवश्यक है।

मीडिया में समाचारों के प्रसारण के संबंध में हस्तक्षेप करना उचित नहीं जान पड़ता है परंतु मीडिया संगठनों के आर्थिक स्त्रोतों और उसकी कार्यप्रणाली की निगरानी की व्यवस्था करना आवश्यक प्रतीत होता है। जिससे मीडिया के कार्यव्यवहार में स्वतः ही सुधार दिखाई देने लगेगा परंतु मीडिया के समाचार प्रसारण पर नियंत्रण से अभिव्यक्ति की संवैधानिक स्वतंत्रता का ही हनन होगा। यह भी ध्यान देने योग्य है कि दर्शकों एवं पाठकों ने भी अब जागरूकता प्रदर्शित करनी शुरू की है, सनसनीखेज और टीआरपी की पत्रकारिता को जनता ने नकारना शुरू कर दिया है।

अगर बात रही पत्रकारों को प्राप्त किसी विशेषाधिकार की तो उसे व्यक्तिगत तौर पर कोई भी विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है, उसके ऊपर वो सभी कानून लागू होते हैं जो किसी आम आदमी पर। फिर भी मीडिया में बढ़ते भ्रष्टाचार और अनैतिक पत्रकारिता के जिम्मेदार लोगों के लिए काटजू की टिप्पणी सटीक जान पड़ती है।

Friday, November 11, 2011

विकिलीक्स को बचा लो…

हमारी लड़ाई महत्वपूर्ण है। हमें आपके सहयोग की बहुत आवश्यकता है। यह अपील है विकिलीक्स के संस्थापक जूलियन असांजे की। जिन्होंने दूतावासों के गुप्त दस्तावेजों को उजागर कर समस्त विश्व को अमेरिकी कूटनीति का परिचय कराया था। विकिलीक्स ने वैसे तो इससे पहले सन् 2007 में ग्वांटनामो बे जेल की बर्बरता की आधिकारिक रिपोर्ट को लीक करके ही सनसनी फैला दी थी। विकिलीक्स की सनसनीखेज पत्रकारिता का दौर तो तब शुरू भी नहीं हुआ था। यह दौर तो नवंबर 2010 में शुरू हुआ जब विकिलीक्स ने अमेरिकी कूटनीति से संबंधित डाटा केबलों का प्रकाशन प्रारंभ किया। इसके साथ ही विकिलीक्स के लिए मुसीबतों की भी शुरूआत हो गई, अमेरिकी सरकार की नाराजगी के कारण असांजे को बहुत दिनों तक गुप्त स्थानों पर रहना पड़ा और विभिन्न मुकदमों का भी सामना करना पड़ा।

इस सबके बावजूद जूलियन असांजे अपने कार्य को लगातार अंजाम देते रहे, लेकिन अब उनकी वेबसाइट गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रही है। दरअसल जब अमेरिकी सरकार असांजे को कानूनी शिकंजे में नहीं फंसा पाई तो उसने उसके अस्तित्व को मिटाने के लिए उसके आर्थिक स्त्रोतों पर लगाम लगानी प्रारंभ की। अमेरिकी दबाव के फलस्वरूप विकिलीक्स की आय के प्रमुख स्त्रोत वीजा, मास्टरकार्ड और एप्पल ने उसके हाथ से छीन लिया। गौरतलब है कि वीजा और मास्टरकार्ड का यूरोप के 97 प्रतिशत कार्ड बाजार पर कब्जा है, इन कंपनियों के हाथ खींच लेने के कारण विकिलीक्स आर्थिक संकट से घिर गई।

विकिलीक्स ने अपनी वेबसाइट में जानकारी दी है कि अमेरिकी सरकार ने उसके विज्ञापनदाताओं पर ही शिकंजा नहीं कसा, बल्कि जिन समाचारपत्रों ने विकिलीक्स के केबलों को प्रकाशित किया था उनको मिलने वाले विज्ञापनों पर भी रोक लगा दी। विकिलीक्स के आर्थिक स्त्रोतों पर अमेरिकी दबाव के कारण विकिलीक्स की आय में 95 प्रतिशत तक कमी आई है।

विकिलीक्स के मुताबिक ‘‘विज्ञापनदाता कंपनियों के हाथ खींच लेने के कारण हमारी आय में 95 प्रतिशत तक की कमी आई है, आर्थिक मदद न मिलने के कारण हम पिछले 11 माह से पूर्व में प्राप्त आय से ही वेबसाइट का संचालन कर रहे हैं। यदि इसी तरह चलता रहा तो हमें 2011 के अंत तक विकिलीक्स को बंद करना पड़ सकता है।”

हालांकि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायोग ने विकिलीक्स के प्रति अमेरिकी रवैये की निंदा की है, परंतु अमेरिका को उसकी फिक्र कहां है। विकिलीक्स के प्रति अमेरिकी रवैया यह सवाल खड़ा करता है कि क्या अमेरिका मीडिया का भी वैश्विक नियंता बन चुका है। विकिलीक्स के खुलासों को बेशक कुछ पत्रकार पत्रकारिता के आदर्शों से परे मानते हों, लेकिन उसने खोजी पत्रकारिता को एक नया आयाम अवश्य दिया है।

विकिलीक्स ने पत्रकारिता में एक नई पहल की विकिलीक्स से पहले खोजी पत्रकारिता का स्तर राष्ट्र से परे नहीं था, जिसे जूलियन असांजे ने वैश्विक रूप प्रदान किया। जूलियन असांजे ने अपनी अपील में कहा है कि यदि आप लोगों की मदद नहीं मिली और आर्थिक संकट बरकरार रहा तो हमें साल के अंत तक विकिलीक्स का प्रकाशन बंद करना पड़ेगा। यानि विकिलीक्स पत्रकारिता जगत से जल्द ही विदाई ले सकती है।

विकिलीक्स जो प्रकाशन के दौरान विवादों और सवालों के घेरे में रही जाते-जाते भी कई सवाल खड़े कर जाएगी। जैसे क्या दान के बल पर चलने वाले पत्रकारिता संस्थान कभी भी कुछ लोगों की नाराजगी के कारण बंद हो सकते हैं? इसके साथ मीडिया के लिए यह भी एक संदेश है कि पूरी तरह विज्ञापनदाताओं पर ही आधारित होकर पत्रकारिता के मिशन को पूरा नहीं किया जा सकता है।

विकिलीक्स को जनता से कितना सहयोग मिलता है और कब तक उसका संचालन हो पाता है यह तो भविष्य ही बताएगा, लेकिन विकिलीक्स जैसी मुसीबतों का सामना कोई और पत्रकारिता संस्थान करे। उससे पहले मीडिया जगत को आत्मावलोकन अवश्य करना चाहिए।