Monday, October 10, 2011
निरस्त्रीकरण के झंडाबरदार, बेच रहे हथियार
विश्व भर में चल रही हथियार बाजार की बहस और घोषणाओं के बीच हथियार बाजार भी बहुत तेजी से अपने पैर पसार रहा है। हथियारों के इस वैश्विक बाजार के संचालक भी वही देश हैं जो निरस्त्रीकरण अभियान के झंडाबरदार हैं। इन देशों में अमेरिका, रूस आदि प्रमुख हैं जो वैश्विक स्तर पर हथियार बेचने का कार्य करते हैं। ‘‘स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च ग्रुप‘‘ के अनुसार विश्व का हथियार उद्योग डेढ़ खरब डॉलर का है और विश्व का तीसरा सबसे भ्रष्टतम उद्योग है। जिसने हथियारों की होड़ को तो बढ़ाया ही है, हथियार माफियाओं और दलालों की प्रजाति को भी जन्म दिया है। विश्व का बढ़ता हथियार बाजार वैश्विक जीडीपी के 2.7 प्रतिशत के बराबर हो गया है। हथियारों के इस वैश्विक बाजार में 90 प्रतिशत हिस्सेदारी पश्चिमी देशों की है, जिसमें 50 प्रतिशत हथियार बाजार पर अमेरिका का कब्जा है।
अमेरिका की तीन प्रमुख कंपनियों का हथियार बाजार पर प्रमुख रूप से कब्जा है- बोइंग, रेथ्योन, लॉकहीड मार्टिन। यह भी एक तथ्य है कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान, इराक और कश्मीर आदि के मामलों में अमेरिकी नीतियों पर इन कंपनियों का भी व्यापक प्रभाव रहता है। भारत के संबंध में यदि बात की जाए तो सन् 1998 में परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका ने भारत को हथियारों को आपूर्ति करने पर प्रतिबंध लगा दिया था। जिसे अमेरिका की बुश सरकार ने 2001 में स्वयं हटा लिया था, जिसके बाद भारत में हथियारों का आयात तेजी से बढ़ा। पिछले पांच वर्षों की यदि बात की जाए तो भारत में हथियारों का आयात 21 गुना और पाक में 128 गुना बढ़ गया है।
भारत-पाकिस्तान के बीच हथियारों की इस होड़ में यदि किसी का लाभ हुआ है, तो अमेरिका और अन्य देशों की हथियार निर्माता कंपनियों का। दरअसल अमेरिका की हथियार बेचने की नीति अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति वुडरो विल्सन के ‘‘गन और बटर‘‘ के सिद्धांत पर आधारित है। गरीब देशों को आपस में लड़ाकर उनको हथियार बेचने की कला को विल्सन ने ‘‘गन और बटर‘‘ सिद्धांत नाम दिया था, जिसका अर्थ है आपसी खौफ दिखाकर हथियारों की आपूर्ति करना। भारत और पाकिस्तान के संदर्भ में भी अमेरिका ने इसी नीति के तहत अपने हथियार कारोबार को लगातार बढ़ाने का कार्य किया है। हाल ही में अरब के देशों में सरकार विरोधी प्रदर्शनों और संघर्ष के दौरान भी अमेरिकी हथियार पाए गए हैं, हथियारों के बाजार में चीन भी अब घुसपैठ करना चाहता है।
हथियारों के प्रमुख आपूर्तिकर्ता देशों का लक्ष्य किसी तरह भारत के बाजार पर पकड़ बनाना है। जिसमें उनको कामयाबी भी मिली है, जिसकी तस्दीक अमेरिकी कांग्रेस की एक रिपोर्ट भी करती है। अमेरिकी कांग्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक सन 2010 में विकासशील देशों में भारत हथियारों की खरीदारी की सूची में शीर्ष पर है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत ने 5.8 अरब डॉलर (लगभग 286.92 रूपये) के हथियार खरीदे हैं। इस सूची में ताइवान दूसरे स्थान पर है, जिसने 2.7 डॉलर (लगभग 133.57 अरब रूपये) के हथियार खरीदे हैं। ताइवान के बाद सऊदी अरब और पाकिस्तान क्रमशः तीसरे और चौथे स्थान पर हैं।
अमेरिकी कांग्रेस की रिपोर्ट के अनुसार भारत के हथियार बाजार पर अब भी रूस का वर्चस्व कायम है, लेकिन अमेरिका, इजरायल और फ्रांस ने भी भारत को अत्याधुनिक तकनीक के हथियारों की आपूर्ति की है। रिपोर्ट के अनुसार विश्व भर में हथियारों की आपूर्ति के मामले में अमेरिका पहले और रूस दूसरे स्थान पर कायम है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अमेरिका दक्षिण एशिया में हथियारों की बढ़ती आपूर्ति के प्रति चिंतित है, कैसी विडंबना है कि हथियारों की आपूर्ति भी की जा रही है और चिंता भी जताई जा रही है। अमेरिकी कांग्रेस की यह रिपोर्ट अमेरिकी नीतियों के दोमुंहेपन को उजागर करती है।
हथियारों के बाजार से संबंधित यह आंकड़े विकासशील देशों के लिए एक सबक हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि विकसित देश आतंक के खिलाफ जंग के नाम पर और शक्ति संतुलन साधने के नाम पर अपने बाजारू हितों की पूर्ति करने का कार्य कर रहे हैं। तीसरी दुनिया के वह देश जो भुखमरी और गरीबी से जंग लड़ने में भी असफल हैं, उन देशों में विकसित देशों के पुराने हथियारों को खपाने से क्या उन देशों को विकास की राह मिल सकती है?
भारत के संदर्भ में यदि देखा जाए तो हम आज भी विकसित देशों के पुराने हथियारों को अधिक दामों पर खरीद रहे हैं। इससे सबक लेते हुए हमें अपने बजट को तय करते समय अपने रक्षा अनुसंधान विभाग को भी पर्याप्त बजट मुहैया कराना होगा, ताकि हम रक्षा प्रणाली के माध्यम में आत्मनिर्भर हो सकें। जिससे भारत की सीमा और संप्रभुता की रक्षा हम स्वदेश निर्मित हथियारों से कर सकें।
Monday, October 3, 2011
परमाणु संयंत्रों का बढ़ता विरोध
परमाणु ऊर्जा के खतरे को सरकार भले नजरंदाज करे, लेकिन फुकुशिमा की घटना के बाद जनता में परमाणु संयंत्रों को लेकर संशय बढ़ता जा रहा है। यही कारण है कि देशभर में परमाणु संयंत्रों को लगाने का विरोध हो रहा है। परमाणु संयंत्रों को उन सभी जगहों पर विरोध का सामना करना पड़ा है, जहां वे प्रस्तावित हैं या लगने की प्रक्रिया में हैं। जैतापुर, हरियाणा के फतेहाबाद, मध्य प्रदेश के चुटका, गुजरात के भावनगर और आंध्र के कोवाडा में परमाणु संयंत्र लगाए जाने का व्यापक विरोध हुआ है। विरोध प्रदर्शनों की इसी श्रृंखला में परमाणु संयंत्रों का एक बार फिर विरोध स्थल बना है, तमिलनाडु का कूडनकुलम।
कूडनकुलम में परमाणु परियोजना की शुरुआत 80 के दशक में हुई थी, इस परियोजना को लेकर उसी समय स्थानीय लोगों ने अपना विरोध दर्ज कराया था। जिसे सरकार ने नजरंदाज करने का प्रयास किया था, परिणामस्वरूप सन 1989 में प्रभावित क्षेत्र के दस हजार मछुआरों ने कन्याकुमारी में प्रदर्शन किया था। सोवियत रूस के विघटन के बाद ऐसा लगा कि यह परियोजना सफल नहीं हो पाएगी, परंतु सन 1998 में इसको फिर से शुरू किया गया और विरोध प्रदर्शनों की भी एक बार फिर शुरुआत हो गई। इस परियोजना को लेकर स्थानीय निवासियों का विरोध सन 1998 से अनवरत जारी है।
कूडनकुलम में लगने वाले बिजलीघर के विरोध में आंदोलन की धार एक बार फिर तेज हो गई है। सितंबर माह में इस आंदोलन ने एक बार फिर जोर पकड़ा, 125 लोग 12 दिनों तक भूख हड़ताल पर बैठे रहे और उनके समर्थन में 15 हजार से अधिक लोग जुटे। इस आंदोलन के दबाव के कारण ही मुख्यमंत्री जयललिता को प्रधानमंत्री से ‘लोगों की आशंकाओं के निवारण‘ तक इस परियोजना को रोकने की मांग करनी पड़ी है। गौरतलब है कि इससे पहले मुख्यमंत्री जयललिता ने भी इस परियोजना को पूर्णतया सुरक्षित और आंदोलनकारियों को भ्रमित बताया था।
कूडनकुलम परियोजना को लेकर आशंकाएं भी कम नहीं हैं। रूस की मदद से लगने वाले परमाणु बिजलीघर को लेकर कई बडे़ सवाल खड़े होते हैं, जिनके जवाब देने से सरकार भी कतरा रही है। इनमें से प्रमुख सवाल निम्नलिखित हैं-
- रूसी सरकार का कहना है कि भारत की संसद में पारित परमाणु दायित्व विधेयक के अंतर्गत कूडनकुलम परियोजना नहीं आती है, क्योंकि भारत सरकार ने सन 2008 में हुए एक गुप्त समझौते के अंतर्गत उसे दायित्व मुक्त रखा है। ऐसे में सवाल उठता है कि किसी भी संभावित खतरे का जिम्मेदार यदि रूस नहीं होगा तो कौन होगा ?
- रूस के परमाणु विभाग ने अपनी सरकार को परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा को लेकर एक रिपोर्ट सौंपी है। इस रिपोर्ट में परमाणु विभाग ने रूस द्वारा तैयार परमाणु संयंत्रों को फुकुशिमा जैसी आपदाओं से निपटने में असफल बताया है। परमाणु विभाग ने परमाणु संयंत्रों में कुल 31 खमियां बताई हैं।
- फुकुशिमा की घटना के बाद सरकार ने परमाणु सुरक्षा संयंत्रों की निगरानी को लेकर एक सुरक्षा नियमन इकाई का गठन किया है। सरकार का यह कदम लोगों की आशंकाओं को दूर करने के लिए नहीं बल्कि उनको तात्कालिक सांत्वना देने भर के लिए है। ताकि परमाणु कंपनियों के मुनाफे पर आंच न आने पाए।
- फुकुशिमा की घटना से भारत को भी सबक लेना चाहिए था। जबकि परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में अग्रणी देशों जैसे स्वीडन, जर्मनी, स्विट्जरलैंड जैसे देशों ने अपनी आगामी परमाणु योजनाओं से हाथ खींच लिया है। जर्मनी ने तो सन् 2025 तक परमाणु ऊर्जा मुक्त बिजली उत्पादन का लक्ष्य तय किया है। उल्लेखनीय है कि भारत के पास जर्मनी की तुलना में सौर ऊर्जा प्राप्त करने की अधिक संभावनाएं हैं, क्योंकि जर्मनी का मौसम सर्द है जबकि भारत में सौर ऊर्जा की उपलब्धता की समस्या नहीं है। जरूरत है तो केवल सौर ऊर्जा प्राप्त करने के साधन विकसित करने की।
- कूडनकुलम जैसी परियोजनाओं से उत्पन्न होने वाली प्रमुख समस्या स्थानीय निवासियों के विस्थापन की है। परमाणु परियोजनाओं को लगाने के पीछे तर्क दिया जाता है कि इन परियोजनाओं को सघन आबादी वाले इलाके में न लगाया जाए। कूडनकुलम परियोजना में इस तथ्य को पूरी तरह से नजरंदाज किया गया है, गौरतलब है कि कूडनकुलम दस लाख की सघन आबादी वाला इलाका है।
ऐसे कई सवाल और समस्याएं हैं, जो इन परमाणु बिजली परियोजनाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। केवल 3 प्रतिशत बिजली आपूर्ति देने वाली बेहद खर्चीली परमाणु योजनाएं देश के हित में योगदान कर पाएंगी, इस पर भी संशय है। ऐसे में परमाणु परियोजनाओं के विरूद्ध जारी जनसंघर्ष अपनी लड़ाई लड़ने के साथ ही सरकार की नीतियों को आईना दिखाने का कार्य भी कर रहे हैं। अंततः केन्द्र और प्रदेश सरकारों को भी अपना दमनकारी रवैया छोड़कर जनहित में अपनी इन घातक परियोजनाओं पर पुर्नविचार करते हुए ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोतों की ओर बढ़ना चाहिए।
Wednesday, September 21, 2011
राष्ट्रीय राजनीति का बदलता परिदृश्य
देश की राजनीति इस समय बदलाव की ओर है. राष्ट्रीय राजनीति में पक्ष और विपक्ष के कई प्रमुख चेहरों के सामने साख का संकट है. जिसके कारण उन चेहरों को निखारने का प्रयास किया जा रहा है, जिनके दम पर वोट बैंक का समीकरण साधा जा सकता है. सन २००४ से सत्ता पर काबिज कांग्रेस पार्टी के प्रमुख चेहरे और ईमानदार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं. कांग्रेस पार्टी को अगले आम चुनावों में मनमोहन सिंह के नाम पर वोट मिलने की उम्मीद नहीं है. इसी के चलते कांग्रेस पार्टी ने कथित ’युवराज’ राहुल गांधी को आगे कर दिया है. दरअसल कांग्रेस पार्टी इस ग़लतफ़हमी में है कि राहुल गांधी के युवा नेतृत्व के नाम पर देश के आम आदमी का साथ कांग्रेस के हाथ को मिलेगा. जिस देश का युवा कांग्रेसी राज से त्रस्त होकर ७० वर्षीय अन्ना के आन्दोलन में सहभागी है, वह राहुल का वोट बैंक कैसे बन सकता है? इससे पहले भी कांग्रेस पार्टी के करिश्माई चेहरे राहुल गांधी का जादू बिहार जैसे अहम राज्य में नहीं चल पाया था. उत्तर प्रदेश में भी उनकी असली परीक्षा अभी बाकी है जहां की फिजा अन्ना अनशन के बाद से बदल गयी है. महंगाई, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, नक्सलवाद जैसे मुद्दों ने राहुल की राजनीति को पलीता लगाया है.
अब एक सवाल यह भी उठता है कि यदि कांग्रेस अपनी साख गवां चुकी है और राहुल प्रभावी चेहरा नहीं हैं तो उनका विकल्प क्या है? क्या देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी के पास राहुल का कोई विकल्प है? जिसे पार्टी आम चुनावों में अपना चेहरा बना सकती है. वर्तमान समय में अपने विकास मॉडल के लिए अमेरिकी प्रशंसा पाने वाले नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताने की होड़ चल पड़ी है. जिससे यह समझ में आता है कि देश में नरेन्द्र मोदी का प्रभाव अवश्य है. अभी तक नरेन्द्र मोदी ने अपनी भूमिका को गुजरात तक ही सीमित रखा है. दरअसल देश की प्रमुख विपक्षी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा की यह समस्या लगभग एक सी है कि केंद्र में स्थापित उनके प्रमुख नेताओं की विश्वसनीयता दांव पर है. ऐसे में दोनों ही पार्टियों के लिए यह आवश्यक है कि आम चुनावों में नए चेहरे को उतार वोट बैंक का समीकरण साधा जाये. नए नेता का चुनाव करने की स्थिति में भाजपा में कांग्रेस की अपेक्षा अधिक समस्याएं हैं. जहां कांग्रेस पार्टी नेहरु-गांधी परिवार को नेतृत्व सौंपने को लेकर कोई विवाद नहीं रहता है, वहीँ भाजपा में नेतृत्व की लड़ाई जगजाहिर है. ऐसे में नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का दावेदार बनाये जाने के क्रम में पहला विरोध पार्टी से ही हो सकता है. यदि आडवाणी समर्थक लॉबी नरेन्द्र मोदी की दावेदारी का समर्थन करे तो नरेन्द्र मोदी के रास्ते की पहली बाधा दूर हो सकती है.
हालांकि अन्ना के अनशन के बाद अभी एक सर्वे कंपनी निल्सन ने २८ राज्यों में अपना एक सर्वे कराया और उसमें सभी जाति, धर्म के लोगों को शामिल किया .इस सर्वे से यह बात स्पष्ट रूप से ज्ञात हुआ कि आम आदमी केंद्र सरकार के शासन व्यवस्था से आजिज आ चुकी है . इस सर्वे की रिपोर्ट में भाजपा को ३१ प्रतिशत व कांग्रेस को २० प्रतिशत अंक हासिल हुए हैं अर्थात अगर तत्काल में चुनाव कराये जायें तो यह बात स्पष्ट है कि भाजपा की जीत सुनिश्चित है . लेकिन राष्ट्रीय स्तर की इस पार्टी में वर्तमान में नेतृत्व की भूमिका का अभाव प्रतीत होता है क्योकि भाजपा में नेतृत्वकर्ता के रूप में अब आम आदमी एक ऐसी छवि को देखना चाहता है जो वास्तव में आम आदमी के हित के साथ-साथ देश का भी विकास कर सके और इसका जीता जागता प्रमाण गुजरात में हो रहे विकास के रूप में सबके सामने प्रस्तुत है .
भारतीय जनता पार्टी यदि मोदी को मैदान में उतारती है तो उसे गठबंधन के स्तर पर भी कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी. फिर भी नरेन्द्र मोदी वह फैक्टर हैं जो इन सभी मुद्दों पर भाजपा को विजय दिला सकते हैं. ऐसे समय में जब पार्टी को व्यापक जनाधार वाले और लोकप्रिय नेता की तलाश हो तो नरेन्द्र मोदी ही सबसे उपयुक्त दिखाई पड़ते हैं. अब बात है नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी के बीच मुकाबले की तो उसका फैसला जनता के हाथों में है कि वह किसे नेता के रूप में स्वीकार करती है. अंततः भाजपा के लिए केंद्र की सत्ता के लिए ही नहीं बल्कि देश की राजनीति में मुख्य लड़ाई में बने रहने के लिए भी नए चेहरे की तलाश है जो नरेन्द्र मोदी के रूप में पूरी हो सकती है.
अब एक सवाल यह भी उठता है कि यदि कांग्रेस अपनी साख गवां चुकी है और राहुल प्रभावी चेहरा नहीं हैं तो उनका विकल्प क्या है? क्या देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी के पास राहुल का कोई विकल्प है? जिसे पार्टी आम चुनावों में अपना चेहरा बना सकती है. वर्तमान समय में अपने विकास मॉडल के लिए अमेरिकी प्रशंसा पाने वाले नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताने की होड़ चल पड़ी है. जिससे यह समझ में आता है कि देश में नरेन्द्र मोदी का प्रभाव अवश्य है. अभी तक नरेन्द्र मोदी ने अपनी भूमिका को गुजरात तक ही सीमित रखा है. दरअसल देश की प्रमुख विपक्षी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा की यह समस्या लगभग एक सी है कि केंद्र में स्थापित उनके प्रमुख नेताओं की विश्वसनीयता दांव पर है. ऐसे में दोनों ही पार्टियों के लिए यह आवश्यक है कि आम चुनावों में नए चेहरे को उतार वोट बैंक का समीकरण साधा जाये. नए नेता का चुनाव करने की स्थिति में भाजपा में कांग्रेस की अपेक्षा अधिक समस्याएं हैं. जहां कांग्रेस पार्टी नेहरु-गांधी परिवार को नेतृत्व सौंपने को लेकर कोई विवाद नहीं रहता है, वहीँ भाजपा में नेतृत्व की लड़ाई जगजाहिर है. ऐसे में नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का दावेदार बनाये जाने के क्रम में पहला विरोध पार्टी से ही हो सकता है. यदि आडवाणी समर्थक लॉबी नरेन्द्र मोदी की दावेदारी का समर्थन करे तो नरेन्द्र मोदी के रास्ते की पहली बाधा दूर हो सकती है.
हालांकि अन्ना के अनशन के बाद अभी एक सर्वे कंपनी निल्सन ने २८ राज्यों में अपना एक सर्वे कराया और उसमें सभी जाति, धर्म के लोगों को शामिल किया .इस सर्वे से यह बात स्पष्ट रूप से ज्ञात हुआ कि आम आदमी केंद्र सरकार के शासन व्यवस्था से आजिज आ चुकी है . इस सर्वे की रिपोर्ट में भाजपा को ३१ प्रतिशत व कांग्रेस को २० प्रतिशत अंक हासिल हुए हैं अर्थात अगर तत्काल में चुनाव कराये जायें तो यह बात स्पष्ट है कि भाजपा की जीत सुनिश्चित है . लेकिन राष्ट्रीय स्तर की इस पार्टी में वर्तमान में नेतृत्व की भूमिका का अभाव प्रतीत होता है क्योकि भाजपा में नेतृत्वकर्ता के रूप में अब आम आदमी एक ऐसी छवि को देखना चाहता है जो वास्तव में आम आदमी के हित के साथ-साथ देश का भी विकास कर सके और इसका जीता जागता प्रमाण गुजरात में हो रहे विकास के रूप में सबके सामने प्रस्तुत है .
भारतीय जनता पार्टी यदि मोदी को मैदान में उतारती है तो उसे गठबंधन के स्तर पर भी कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी. फिर भी नरेन्द्र मोदी वह फैक्टर हैं जो इन सभी मुद्दों पर भाजपा को विजय दिला सकते हैं. ऐसे समय में जब पार्टी को व्यापक जनाधार वाले और लोकप्रिय नेता की तलाश हो तो नरेन्द्र मोदी ही सबसे उपयुक्त दिखाई पड़ते हैं. अब बात है नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी के बीच मुकाबले की तो उसका फैसला जनता के हाथों में है कि वह किसे नेता के रूप में स्वीकार करती है. अंततः भाजपा के लिए केंद्र की सत्ता के लिए ही नहीं बल्कि देश की राजनीति में मुख्य लड़ाई में बने रहने के लिए भी नए चेहरे की तलाश है जो नरेन्द्र मोदी के रूप में पूरी हो सकती है.
Tuesday, September 20, 2011
पत्रकारिता के प्रकाशपुंज बाबूराव विष्णु पराड़कर
भारत में पत्रकारिता का उदभव ही राष्ट्रव्यापी पुनर्जागरण और समाज कल्याण के उद्देश्य से हुआ था। महात्मा गांधी, बाबूराव विष्णु पराड़कर, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, महर्षि अरविंद आदि युगपुरुष पत्रकारिता की इसी परंपरा के वाहक थे। जिन्होंने पत्रकारिता को देशहित में कार्य करने का लक्ष्य और प्रेरणा दी। पत्रकारिता में उनके आदर्श ही पत्रकारों की वर्तमान पीढ़ी के लिए दिशा-निर्देश के समान हैं, जिन पर चलकर पत्रकारों की वर्तमान पीढ़ी अपनी इस अमूल्य विधा के साथ न्याय कर सकती है। पत्रकारिता की अमूल्य विधा वर्तमान समय में अपने संक्रमण काल के दौर से गुजर रही है। दरअसल पत्रकारिता में यह संक्रमण उन आशंकाओं का अवतरण है, जिसकी आशंका पत्रकारिता के युगपुरूषों ने बहुत पहले ही व्यक्त की थीं।
संपादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर ने भविष्य में पत्रकारिता में बाजारवाद, नैतिकता के अभाव और पत्रकारों की स्वतंत्रता के बारे में कहा था-
‘‘पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना बड़े-बड़े धनियों अथवा सुसंगठित कंपनियों के लिए ही संभव होगा। पत्र संर्वांग सुंदर होंगे। आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता होगी, कल्पकता होगी, गंभीर गवेषणा की झलक होगी, ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी। यह सब कुछ होगा पर पत्र प्राणहीन होंगे। पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त अथवा मानवता के उपासक महाप्राण संपादकों की नीति न होगी- इन गुणों से संपन्न लेखक विकृत मस्तिष्क समझे जाएंगे, संपादक की कुर्सी तक उनकी पहुंच भी न होगी। वेतनभोगी संपादक मालिक का काम करेंगे और बड़ी खूबी के साथ करेंगे। वे हम लोगों से अच्छे होंगे। पर आज भी हमें जो स्वतंत्रता प्राप्त है वह उन्हें न होगी। वस्तुतः पत्रों के जीवन में यही समय बहुमूल्य है।‘‘(संपादक पराड़कर में उद्धृत)
पराड़कर जी के यह कथन वर्तमान दौर की पत्रकारिता में चरितार्थ होने लगे हैं। जब पत्रकारों की कलम की स्याही हल्का लिखने लगी है और समाजहित जैसी बातें बेमानी होने लगी हैं। इसका कारण पत्रकार नहीं बल्कि वे मीडिया मुगल हैं जो मीडिया के कारोबारी होते हैं। पत्रकारिता पर पूंजीपतियों के दखल और उसके दुष्प्रभावों के बारे में पराड़कर जी ने कहा था-
‘‘पत्र निकालने का व्यय इतना बढ़ गया है कि लेखक केवल अपने ही भरोसे इसमें सेवा प्राप्त नहीं कर सकता। धनियों का सहयोग अनिवार्य हो गया है। दस जगह से धनसंग्रह कर आप कंपनी बनाएं अथवा एक ही पूंजीपति पत्र निकाल दे, संपादक की स्वतंत्रता पर दोनों का परिणाम प्रायः एक सा ही होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि पत्रों की उन्नति के साथ-साथ पत्रों पर धनियों का प्रभाव अधिकाधिक परिणाम में अवश्य पड़ेगा।‘‘(इतिहास निर्माता पत्रकार, डा. अर्जुन तिवारी)
बाजार के बढ़ते प्रभाव के कारण समाचारपत्र के स्वरूप और समाचारों के प्रस्तुतिकरण में आ रहे बदलावों के बारे में पराड़कर जी ने कहा था-
‘‘पत्र बेचने के लाभ से अश्लील समाचारों को महत्व देकर तथा दुराचरण मूलक अपराधों का चित्ताकर्षण वर्णन कर हम परमात्मा की दृष्टि में अपराधियों से भी बड़े अपराधी ठहर रहे हैं, इस बात को कभी न भूलना चाहिए। अपराधी एकाध पर अत्याचार करके दण्ड पाता है और हम सारे समाज की रूचि बिगाड़ कर आदर पाना चाहते हैं।‘‘(प्रथम संपादक सम्मेलन 1925 के वृंदावन हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्षीय वक्तव्य से)
पराड़कर जी का यह कथन वर्तमान समय में और भी प्रासंगिक लगता है, जब खबर के बाजार में मीडिया मुगल अश्लील खबरों के माध्यम से बाजार पर हावी होने के प्रयास में रहते हैं।
पत्रकार को देश के समसामयिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक और विभिन्न महत्वपूर्ण विषयों के बारे में जानकारी अवश्य होनी चाहिए। तभी वह अपने उद्देश्य में सफल हो सकता है। इसका वर्णन करते हुए पराड़कर जी ने कहा था -
‘‘मेरे मत से संपादक में साहित्य और भाषा ज्ञान के अतिरिक्त भारत के इतिहास का सूक्ष्म और संसार के इतिहास का साधारण ज्ञान तथा समाज शास्त्र, राजनीति शास्त्र और अंतर्राष्ट्रीय विधानों का साधारण ज्ञान होना आवश्यक है। अर्थशास्त्र का वह पण्डित न हो पर कम से कम भारतीय और प्रान्तीय बजट समझने की योग्यता उसमें अवश्य होनी चाहिए।‘‘ (इतिहास निर्माता पत्रकार, अर्जुन तिवारी)
अभी हाल ही में प्रधानमंत्री ने टिप्पणी की थी कि ‘‘मीडिया अब जज की भूमिका अदा करने लगा है‘‘ यह कुछ अर्थों में सही भी है। पत्रकारों पर राजनीति का कलेवर हावी होने लगा है, पत्रकारिता के राजनीतिकरण पर टिप्पणी करते हुए पराड़कर जी ने कहा था-
‘‘आज का पत्रकार राजनीति और राजसत्ता का अनुकूल्य उपलब्ध करने के लिए उनके मुहावरे में बोलने लगा है। उपभोक्ता संस्कृति के अभिशाप को लक्ष्य कर राजनेताओं की तरह आवाज टेरने वाले पत्रकार स्वयं व्यावसायिक चाकचिक्य के प्रति सतृष्ण हो गए हैं और उपभोक्ता संस्कृति ही इनकी संस्कृति बनती जा रही है।‘‘(पत्रकारिता इतिहास और प्रश्न, कृष्णबिहारी मिश्र)
संपादकाचार्य पराड़कर जी की पत्रकारिता का लक्ष्य पूर्णतः स्वतंत्रता प्राप्ति के ध्येय को समर्पित था। पराड़कर जी ने अपने उद्देष्य की घोषणा इन शब्दों में की थी-
षब्दों में सामर्थ्य का भरें नया अंदाज।
बहरे कानों को हुए अब अपनी आवाज।
5 सितंबर, 1920 को ‘आज‘ की संपादकीय टिप्पणी में अपनी नीतियों को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा था- ‘‘हमारा उद्देश्य अपने देश के लिए सर्व प्रकार से स्वातंत्र्य उपार्जन है। हम हर बात में स्वतंत्र होना चाहते हैं। हमारा लक्ष्य है कि हम अपने देश के गौरव को बढ़ावें, अपने देशवासियों में स्वाभिमान संचार करें।‘‘
पराड़कर जी की पत्रकारिता पूर्णतः ध्येय समर्पित पत्रकारिता थी, जिसका वर्तमान पत्रकार पीढ़ी में सर्वथा अभाव दिखता है। बाबूराव विष्णु पराड़कर पत्रकारिता जगत के लिए सदैव स्मरणीय आदर्श पत्रकार हैं। पत्रकारिता के सही मूल्यों को चरितार्थ करने वाले बाबूराव विष्णु पराड़कर जी की पत्रकारिता के पदचिन्ह वर्तमान पत्रकार पीढ़ी के लिए पथप्रदर्शक के समान हैं।
संपादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर ने भविष्य में पत्रकारिता में बाजारवाद, नैतिकता के अभाव और पत्रकारों की स्वतंत्रता के बारे में कहा था-
‘‘पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना बड़े-बड़े धनियों अथवा सुसंगठित कंपनियों के लिए ही संभव होगा। पत्र संर्वांग सुंदर होंगे। आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता होगी, कल्पकता होगी, गंभीर गवेषणा की झलक होगी, ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी। यह सब कुछ होगा पर पत्र प्राणहीन होंगे। पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त अथवा मानवता के उपासक महाप्राण संपादकों की नीति न होगी- इन गुणों से संपन्न लेखक विकृत मस्तिष्क समझे जाएंगे, संपादक की कुर्सी तक उनकी पहुंच भी न होगी। वेतनभोगी संपादक मालिक का काम करेंगे और बड़ी खूबी के साथ करेंगे। वे हम लोगों से अच्छे होंगे। पर आज भी हमें जो स्वतंत्रता प्राप्त है वह उन्हें न होगी। वस्तुतः पत्रों के जीवन में यही समय बहुमूल्य है।‘‘(संपादक पराड़कर में उद्धृत)
पराड़कर जी के यह कथन वर्तमान दौर की पत्रकारिता में चरितार्थ होने लगे हैं। जब पत्रकारों की कलम की स्याही हल्का लिखने लगी है और समाजहित जैसी बातें बेमानी होने लगी हैं। इसका कारण पत्रकार नहीं बल्कि वे मीडिया मुगल हैं जो मीडिया के कारोबारी होते हैं। पत्रकारिता पर पूंजीपतियों के दखल और उसके दुष्प्रभावों के बारे में पराड़कर जी ने कहा था-
‘‘पत्र निकालने का व्यय इतना बढ़ गया है कि लेखक केवल अपने ही भरोसे इसमें सेवा प्राप्त नहीं कर सकता। धनियों का सहयोग अनिवार्य हो गया है। दस जगह से धनसंग्रह कर आप कंपनी बनाएं अथवा एक ही पूंजीपति पत्र निकाल दे, संपादक की स्वतंत्रता पर दोनों का परिणाम प्रायः एक सा ही होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि पत्रों की उन्नति के साथ-साथ पत्रों पर धनियों का प्रभाव अधिकाधिक परिणाम में अवश्य पड़ेगा।‘‘(इतिहास निर्माता पत्रकार, डा. अर्जुन तिवारी)
बाजार के बढ़ते प्रभाव के कारण समाचारपत्र के स्वरूप और समाचारों के प्रस्तुतिकरण में आ रहे बदलावों के बारे में पराड़कर जी ने कहा था-
‘‘पत्र बेचने के लाभ से अश्लील समाचारों को महत्व देकर तथा दुराचरण मूलक अपराधों का चित्ताकर्षण वर्णन कर हम परमात्मा की दृष्टि में अपराधियों से भी बड़े अपराधी ठहर रहे हैं, इस बात को कभी न भूलना चाहिए। अपराधी एकाध पर अत्याचार करके दण्ड पाता है और हम सारे समाज की रूचि बिगाड़ कर आदर पाना चाहते हैं।‘‘(प्रथम संपादक सम्मेलन 1925 के वृंदावन हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्षीय वक्तव्य से)
पराड़कर जी का यह कथन वर्तमान समय में और भी प्रासंगिक लगता है, जब खबर के बाजार में मीडिया मुगल अश्लील खबरों के माध्यम से बाजार पर हावी होने के प्रयास में रहते हैं।
पत्रकार को देश के समसामयिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक और विभिन्न महत्वपूर्ण विषयों के बारे में जानकारी अवश्य होनी चाहिए। तभी वह अपने उद्देश्य में सफल हो सकता है। इसका वर्णन करते हुए पराड़कर जी ने कहा था -
‘‘मेरे मत से संपादक में साहित्य और भाषा ज्ञान के अतिरिक्त भारत के इतिहास का सूक्ष्म और संसार के इतिहास का साधारण ज्ञान तथा समाज शास्त्र, राजनीति शास्त्र और अंतर्राष्ट्रीय विधानों का साधारण ज्ञान होना आवश्यक है। अर्थशास्त्र का वह पण्डित न हो पर कम से कम भारतीय और प्रान्तीय बजट समझने की योग्यता उसमें अवश्य होनी चाहिए।‘‘ (इतिहास निर्माता पत्रकार, अर्जुन तिवारी)
अभी हाल ही में प्रधानमंत्री ने टिप्पणी की थी कि ‘‘मीडिया अब जज की भूमिका अदा करने लगा है‘‘ यह कुछ अर्थों में सही भी है। पत्रकारों पर राजनीति का कलेवर हावी होने लगा है, पत्रकारिता के राजनीतिकरण पर टिप्पणी करते हुए पराड़कर जी ने कहा था-
‘‘आज का पत्रकार राजनीति और राजसत्ता का अनुकूल्य उपलब्ध करने के लिए उनके मुहावरे में बोलने लगा है। उपभोक्ता संस्कृति के अभिशाप को लक्ष्य कर राजनेताओं की तरह आवाज टेरने वाले पत्रकार स्वयं व्यावसायिक चाकचिक्य के प्रति सतृष्ण हो गए हैं और उपभोक्ता संस्कृति ही इनकी संस्कृति बनती जा रही है।‘‘(पत्रकारिता इतिहास और प्रश्न, कृष्णबिहारी मिश्र)
संपादकाचार्य पराड़कर जी की पत्रकारिता का लक्ष्य पूर्णतः स्वतंत्रता प्राप्ति के ध्येय को समर्पित था। पराड़कर जी ने अपने उद्देष्य की घोषणा इन शब्दों में की थी-
षब्दों में सामर्थ्य का भरें नया अंदाज।
बहरे कानों को हुए अब अपनी आवाज।
5 सितंबर, 1920 को ‘आज‘ की संपादकीय टिप्पणी में अपनी नीतियों को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा था- ‘‘हमारा उद्देश्य अपने देश के लिए सर्व प्रकार से स्वातंत्र्य उपार्जन है। हम हर बात में स्वतंत्र होना चाहते हैं। हमारा लक्ष्य है कि हम अपने देश के गौरव को बढ़ावें, अपने देशवासियों में स्वाभिमान संचार करें।‘‘
पराड़कर जी की पत्रकारिता पूर्णतः ध्येय समर्पित पत्रकारिता थी, जिसका वर्तमान पत्रकार पीढ़ी में सर्वथा अभाव दिखता है। बाबूराव विष्णु पराड़कर पत्रकारिता जगत के लिए सदैव स्मरणीय आदर्श पत्रकार हैं। पत्रकारिता के सही मूल्यों को चरितार्थ करने वाले बाबूराव विष्णु पराड़कर जी की पत्रकारिता के पदचिन्ह वर्तमान पत्रकार पीढ़ी के लिए पथप्रदर्शक के समान हैं।
भाषायी पत्रकारिता के संस्थापक राजा राममोहन राय
राजा राममोहन राय! यह नाम एक प्रखर एवं प्रगतिशील व्यक्तित्व का नाम है, जिन्होंने भारत में भाषायी प्रेस की स्थापना का ऐतिहासिक कार्य किया। राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण एवं सामाजिक आंदोलनों का प्रणेता भी कहा जाता है। उन्होंने तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों के विरूद्ध जनजागरण का कार्य किया, जो तत्कालीन समय की महत्वपूर्ण आवश्यकता थी। राजा राममोहन राय ने सामाजिक और राष्ट्रव्यापी जनजागरण कार्य पत्रकारिता के माध्यम से ही किया था। उन्होंने पत्रकारिता को जनजागरण के सशक्त माध्यम के रूप में प्रस्तुत किया था। उनके द्वारा चलाए गए सामाजिक आंदोलन और पत्रकारिता एक-दूसरे के पूरक थे। उनकी पत्रकारिता सामाजिक आंदोलन को मजबूती प्रदान करती थी।
राजा राममोहन राय का जन्म राधानगर, बंगाल में 22 मई, 1772 को कुलीन ब्राहमण परिवार में हुआ था। उनका जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ था जो धार्मिक विविधताओं से परिपूर्ण था। उनकी माता शैव मत में विश्वास करती थीं एवं पिता वैष्णव मत में, जिसका उनके जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ा। सामाजिक परिवर्तनों के प्रणेता और आधुनिक भारत के स्वप्नदृष्टा राजा राममोहन राय ने संवाद कौमुदी, ब्रह्मैनिकल मैगजीन, मिरात-उल-अखबार, बंगदूत जैसे सुप्रसिद्ध पत्रों का प्रकाशन किया। राजा राममोहन राय ने सन 1821 में बंगाली पत्र संवाद कौमुदी का कलकत्ता से प्रकाशन प्रारंभ किया। इसके बाद सन 1822 में उन्होंने फारसी भाषा के पत्र
मिरात-उल-अखबार और ब्रह्मैनिकल मैगजीन का प्रकाशन किया। यह पत्र तत्कालीन समय में राष्ट्रवादी एवं जनतांत्रिक विचारों के शुरूआती समाचार पत्रों में से थे। इन समाचार पत्रों का उद्देश्य राष्ट्रीय पुनर्जागरण और सामाजिक चेतना ही था। इन समाचार पत्रों के अलावा राजा राममोहन राय ने अंग्रेजी में बंगला हेराल्ड और बंगदूत का भी प्रकाशन किया।
राजा राममोहन राय ने भारत में उद्देश्यपूर्ण पत्रकारिता की नींव डाली थी। उन्होंने अपने द्वारा प्रकाशित किए गए समाचार पत्रों का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा था कि-
‘‘मेरा उद्देश्य मात्र इतना है कि जनता के सामने ऐसे बौद्धिक निबंध उपस्थित करूं जो उनके अनुभव को बढ़ावें और सामाजिक प्रगति में सहायक सिद्ध हों। मैं अपनी शक्ति भर शासकों को उनकी प्रजा की परिस्थितियों का सही परिचय देना चाहता हूं और प्रजा को उनके शासकों द्वारा स्थापित विधि व्यवस्था से परिचित कराना चाहता हूं, ताकि जनता को शासन अधिकाधिक सुविधा दे सके। जनता उन उपायों से अवगत हो सके जिनके द्वारा शासकों से सुरक्षा पायी जा सके और अपनी उचित मांगें पूरी कराई जा सकें।‘‘
राजा राममोहन राय ने भारत में पत्रकारिता की नींव उस समय डाली थी, जब भारत को पत्रकारिता के महत्वपूर्ण अस्त्र की आवश्यकता थी। वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कोलकाता प्रेस क्लब में अपने संबोधन में कहा था-
‘‘उन्होंने बंगाली और फारसी भाषा में समाचार पत्रों का प्रकाशन किया और हमेशा ही प्रेस की स्वतंत्रता की लड़ाई के अगुआ रहे। राजा राममोहन राय ने बहुत पहले ही सन 1823 में ही प्रेस की स्वतंत्रता के महत्व और उसकी आवश्यकता की व्याख्या कर दी थी।‘‘
प्रधानमंत्री ने प्रेस की स्वतंत्रता के संबंध में राजा राममोहन राय के शब्दों को ही उद्धृत करते हुए कहा- ‘‘प्रेस की आजादी के बिना दुनिया के किसी भी हिस्से में क्रांति नहीं हो सकती है।‘‘
प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर मौजूदा दौर में आवाजें उठती रहती हैं। प्रेस की स्वतंत्रता की लड़ाई का आरंभ राजा राममोहन राय ने ब्रिटिश शासन से टकराव मोल ले लिया था। उनका मानना था कि समाचारपत्रों पर सरकार का नियंत्रण नहीं होना चाहिए, और सच्चाई सिर्फ इसलिए नहीं दबा देनी चाहिए कि वह सरकार को पसंद नहीं है। प्रेस की स्वतंत्रता के मुद्दे पर ही इतिहास पर दृष्टि डालते हुए मनमोहन सिंह ने कहा- ‘‘जब कोलकाता में प्रेस पर नियंत्रण करने का प्रयास किया गया, तब राजा राममोहन राय ने सरकार के निर्णय की आलोचना करते हुए ब्रिटिश सरकार को ज्ञापन सौंपा। उन्होंने पत्रकारिता की स्वतंत्रता की ओर ब्रिटिश सरकार का ध्यान इन शब्दों में आकर्षित किया।‘‘
राजा राममोहन राय ने ब्रिटिश सरकार से कहा- ‘‘कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले अधिकतर समाचारपत्र यहां के मूल निवासियों के बीच लोकप्रिय हैं, जो उनमें एक स्वतंत्र चिंतन और ज्ञान की व्याख्या करते हैं। यह समाचार पत्र उनके ज्ञान को बढ़ाने और स्थिति को सुधारने का प्रयत्न कर रहे हैं।‘‘
उन्होंने ब्रिटिश सरकार से कहा- ‘‘इन समाचारपत्रों के प्रकाशन पर रोक लगाया जाना उचित नहीं है।‘‘ राजा राममोहन राय ने हमेशा ही पत्रकारिता की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया था। उन्होंने सन 1815 से 1830 के कम अंतराल में ही तीस पुस्तकें लिखी थीं। सौमेन्द्र नाथ ठाकुर के अनुसार-‘‘बंगाली काव्य जगत ने बंकिम चंद्र चटर्जी और रविन्द्र नाथ टैगोर की कविताओं के माध्यम से जो ऊंचाई प्राप्त की है, उसकी आधारशिला राजा राममोहन राय ने ही रखी थी।‘‘
राजा राममोहन राय को आधुनिक भारत का जनक माना जाता है। महान क्रांतिकारी सुभाष चंद्र बोस ने राजा राममोहन के बारे में कहा कि- ‘‘राजा राममोहन राय भारतीय पुनर्जागरण के अगुआ थे जिन्होंने भारत में एक मसीहा के रूप में नए युग का सूत्रपात किया।‘‘
राजा राममोहन राय की अंग्रेजी शासन और अंग्रेजी भाषा के प्रशंसक होने के कारण आलोचना की जाती रही है। उनकी तमाम आलोचनाओं के बाद
भी भारत में भाषायी प्रेस की स्थापना और स्वतंत्रता के लिए किए गए उनके योगदान को भाषायी पत्रकारिता के इतिहास में भुलाया नहीं जा सकता है। राजा राममोहन राय अपनी मृत्यु से कुछ वर्ष पूर्व ब्रिटेन में जा बसे थे जहां 27 सितंबर, 1833 को ब्रिस्टल (इंग्लैण्ड) में उनका निधन हो गया।
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