Tuesday, October 18, 2011

“वॉल स्ट्रीट घेरो आंदोलन” के निहितार्थ

अमेरिका और यूरोपीय देशों सहित विश्व भर के 82 देशों में पूंजीवाद विरोधी आंदोलन चल रहे हैं। इस आंदोलन को ‘आक्यूपाइ वाल स्ट्रीट जनरल‘ नाम दिया गया है। 82 देशों के विभिन्न शहरों और स्टॉक एक्सचेंजों के आसपास जमा भीड़ वर्तमान आर्थिक ढांचे के लिए एक चेतावनी के रूप में दिखाई दे रही है। न्यूयॉर्क के टाइम्स स्क्वायर में और अन्य देशों के प्रमुख शहरों में जमा आंदोलनकारी अपनी आजीविका छीनने और रोजगार के कम अवसरों के कारण हताश हैं। यूरोपीय संघ में कर्ज संकट गहराने और अमेरिका में आई मंदी ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को गहरे से प्रभावित किया है। समस्त विश्व के लिए अनुकरणीय आर्थिक मॉडल और सुपर पॉवर बने अमेरिका की असली तस्वीर अब सबके सामने है।

गौरतलब है कि वह अमेरिका जो दुनिया की आर्थिक ग्रोथ का इंजन था, अब उसमें ठहराव आने लगा है। रीयल एस्टेट के कारोबार और उपभोक्ता संस्कृति पर आधारित अर्थव्यवस्था अब ढलान की ओर है। इसी समय में पूंजीवादियों के द्वारा आम लोगों के पोषण और भ्रष्टाचार ने व्यवस्था के प्रति आम अमेरिकियों के गुस्से को और बढ़ा दिया है। तानाशाही शासन के विरोध में खाड़ी देशों और भारत में हुए आंदोलन के बाद अमेरिका में भ्रष्टाचार को लेकर उपजे गुस्से ने आंदोलनों का वैश्वीकरण कर दिया है। अमेरिका और यूरोपीय संघ के देश आर्थिक रूप से समृद्ध देशों की श्रेणी में आते हैं। आंदोलन इन देशों में कम ही देखने को मिलते हैं, ऐसे में इन देशों में बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारियों का एकत्रीकरण समस्या की जटिलता को उजागर करता है। प्रदर्शनकारी ‘‘हमारा पैसा वापस करो” और “परमाणु परियोजनाएं बंद करो” जैसे नारे लगा रहे हैं। फिलीपिंस में तो प्रदर्शनकारियों ने अमेरिकी दूतावास के सामने प्रदर्शन किया और ‘‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद‘‘ के नारे लगाए, और अमेरिका को चेताते हुए ‘‘फिलीपिंस बिकाऊ नहीं है‘‘ का उद्घोष किया।

विश्व के 82 देशों में चल रहे इस प्रकार के आंदोलन अमेरिकी आर्थिक मॉडल के अवसान की घोषणा कर रहे हैं। सन् 2008 में 117 वर्ष पुराने बैंक ‘‘लेहमन ब्रदर्स‘‘ के डूबने के साथ ही अमेरिका और उससे व्यापारिक तौर पर जुड़े राष्ट्रों में मंदी की आहट सुनाई पड़ी थी। उसके बाद अमेरिका ने अपने बैंको के डूबने के सिलसिले को रोकने के लिए और बाजार में मांग बढ़ाने के लिए राहत पैकेजों की घोषणाएं की थीं। इन राहत पैकेजों के माध्यम से जब तक अर्थव्यवस्था संभलती उससे पहले ही कर्ज संकट ने एक बार फिर अमेरिकी व्यवस्था को हिला दिया।

बाजार में मांग कम होने के कारण अमेरिकी कंपनियां वहां के श्रमिकों को अधिक वेतन पर रखने की बजाय एशियाई मूल के लोगों को रोजगार दे रही हैं। जिससे उनके उत्पादों में लगने वाले लागत मूल्य में कमी आ जाती है। हालांकि राष्ट्रपति ओबामा ने आउटसोर्सिंग पर रोक लगाने का ऐलान किया था, परंतु कंपनियों के दबाव के कारण उनको अपने रवैये में बदलाव करना पड़ा। जिसके परिणामस्वरूप अमेरिकी नागरिकों की बेरोजगारी का प्रतिशत एक बार फिर बढ़ गया। बाजार में मंदी और आउटसोर्सिंग ने अमेरिकी नागरिकों के सामने दोहरी समस्या खड़ी कर दी है।

अमेरिका में आने वाली कोई भी समस्या विश्व भर की समस्या बन जाती है और अमेरिका की कामयाबी को भी वैश्विक सफलता के रूप में प्रचारित किया जाता है। इसका कारण यह है कि विश्व की अर्थव्यवस्था डॉलर आधारित अर्थव्यवस्था है, ऐसे में अमेरिका से व्यापारिक तौर पर जुड़े देशों पर इसका प्रभाव पड़ना लाजिमी है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आ रहा ठहराव हमारे सामने भी कुछ प्रश्न खड़े करता है। जिनमें से प्रमुख हैं-

- क्या उपभोक्ता आधारित संस्कृति के भरोसे भारत एक मजबूत और स्थिर महाशक्ति बन सकता है?

- क्या जीडीपी हमारी आर्थिक संवृद्धि को मापने का सही पैमाना है?

- सबसे बड़ा प्रश्न इस आर्थिक मॉडल के तहत है, आय का असमान वितरण। गरीब और अमीर के बीच चौड़ी होती खाई, और चंद लोगों की उन्नति होने से क्या कोई राष्ट्र विकसित राष्ट्र हो सकता है?

ऐसे कुछ सवालों के जवाब हमें तलाशने चाहिए और अपनी आर्थिक नीतियों की एक बार फिर से समीक्षा करनी चाहिए। जिस अमेरिकी मॉडल का अनुकरण करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं, वह अमेरिका में ही सफल नहीं हो पाया है। ऐसे में अमेरिकी मॉडल के अंधानुकरण करने की नीतियों की एक बार हमें समीक्षा करते हुए, इन आंदोलनों से सबक लेना चाहिए।

1 comment:

  1. ‘आक्यूपाइ वाल स्ट्रीट जनरल‘par behtareen lekh hai. sahi kaha american enjine ab aur nhi khich paayega.

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