Tuesday, January 24, 2012

शिक्षा प्रचार का साधन हैं समाचार पत्र- महावीर प्रसाद द्विवेदी

हिंदी पत्रकारिता का प्रारंभिक काल भारतीय नवजागरण अथवा पुनर्जागरण का काल था। उस दौरान भारत की राष्ट्रीय, जातीय व भाषायी चेतना जागृत हो रही थी। इस दौर की पत्रकारिता एक मिशन के तौर पर काम कर रही थी। उस दौर के पत्रकारों ने पत्रकारिता के क्षेत्र में जो आयाम और आदर्श स्थापित किए, वे आज भी पत्रकारिता की उदीयमान पीढ़ी के लिए मार्गदर्शन का स्त्रोत हैं। ऐसे ही एक पत्रकार थे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जिन्हें हिंदी पत्रकारिता जगत में संपादकों का आचार्य भी कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। गणेश शंकर विद्यार्थी और बाबूराव विष्णु पराड़कर जैसे पत्रकार भी आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा की उपज थे।

महावीर प्रसाद द्विवेदी की पत्रकारिता और उनकी संपादन शैली के बारे में जानने के लिए बाबूराव विष्णु पराड़कर की निम्न पंक्तियां दृष्टव्य हैं- ‘‘सन 1906 से, जब मैंने स्वयं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया, प्रति मास सरस्वती का अध्ययन मेरा एक कर्तव्य हो गया। मैं सरस्वती देखा करता था संपादन सीखने के लिए।‘‘

द्विवेदी जी ने हिंदी पत्रकारिता में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया, वे सदैव नवोदित पत्रकारों को मार्गदर्शन देते रहे। हिंदी पत्रकारिता और हिंदी भाषा की प्रगति को लेकर आचार्य द्विवेदी जी जीवन पर्यंत प्रयास करते रहे। हिंदी के पत्रों की कम होती संख्या पर चिंता व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा है- ‘‘हमारे प्रान्त की मातृभाषा हिन्दी ही है। परंतु स्वदेश और स्वभाषा के शत्रु उसे अस्पृश्य और अपाठ्य समझते हैं। इसी से उर्दू के पत्रों की अपेक्षा हिन्दी के पत्रों की संख्या आधे से भी कम रही। मातृभाषा के इन द्रोहियों की बुद्धि भगवान ठिकाने लावें, इनमें से पांच फीसदी अंग्रेजी के धुरंधर पंडित जरूर होंगे। इन्हें रोज पायनियर और इंग्लिशमैन पढ़े बिना कल नहीं पड़ती। इनकी शिकायत है कि हिन्दी में कोई अच्छा पत्र है ही नहीं, पढ़ें क्या? पर इनको यह नहीं सूझता कि अच्छे हिंदी पत्र निकालने वाले क्या किसी और लोक से आवेंगे। या तो तुम खुद निकालो, या औरों के पत्र लेकर उन्हें उत्साहित करो, या अच्छे पत्र निकालने वालों की मदद करो। सिर्फ प्रलाप करने से हिन्दी के अच्छे पत्र पैदा नहीं हो सकते।‘‘ (सरस्वती, मई 1908, पृ.194)

हिंदी भाषा की उन्नति के लिए उन्होंने हिंदुओं से आह्वान करते हुए कहा- ‘‘यह इन प्रांतों के साहित्य की दशा है। मुसलमान तो हाईकोर्ट के जज हो जाने पर भी उर्दू में पुस्तकें लिखने का कष्ट उठावें, पर हिन्दू बेकार बैठने को ही अपने कर्तव्य की चरम सीमा समझें, या यदि लिखें भी तो हिन्दी को छोड़कर अन्य किसी भाषा में। फिर भला हिन्दी की उन्नति हो कैसे।‘‘ (सरस्वती, मार्च 1912, पृ.171)

द्विवेदी जी की पत्रिका सरस्वती से ही हिंदी पत्रकारिता में शीर्ष स्थान रखने वाले संपादकों ने प्रशिक्षण प्राप्त किया था। सीखने की प्रवृत्ति रखने वाले पत्रकारों का द्विवेदी जी सदा ही प्रोत्साहन करते थे। उनका मानना था कि हमें सर्वज्ञता का घमंड नहीं होना चाहिए और हमें अपने लिखे हुए में परिशोधन एवं संशोधन को अवश्य स्वीकार करना चाहिए। लेखों के पुनर्शोधन में उनका स्पष्ट मत था कि-
‘‘अपना लिखा सभी को अच्छा लगता है, परंतु उसके अच्छे-बुरे का विचार दूसरे ही कर सकते हैं। जो लेख हमने लौटाये, वे समझ-बूझकर हमने लौटाये, किसी और कारण से नहीं। अतएव यदि उसमें किसी को बुरा लगा तो हमको खेद है। यदि हमारी बुद्धि के अनुसार लेख हमारे पास आवें तो हम उन्हें क्यों लौटावें? उनको हम सादर स्वीकार करें, भेजने वाले को भी धन्यवाद दें और उसके साथ ही यदि हो सके तो कुछ पुरस्कार भी दें।‘‘

‘‘यदि किसी को सर्वज्ञता का घमण्ड नहीं है, तो वह अपने लेख में दूसरे के किए हुए परिशोधन को देखकर कदापि रूष्ट न होगा। लेखक अपने लेख का प्रूफ स्वयं शोध सकता है, और संशोधन के समय हमारे किए हुए परिवर्तन यदि उसे ठीक न जान पड़े, तो हमको सूचना देकर, वह उनको अपने मनोनुकूल बना सकता है‘‘

समाचार पत्र जनसूचना का ही नहीं बल्कि जनशिक्षण और जनजागरण का भी महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। समाचार पत्रों की संख्या में बढ़ोत्तरी के संदर्भ में उनका कहना था कि- ‘‘समाचार पत्र शिक्षाप्रचार का प्रधान साधन है। जिस देश में जितने ही अधिक पत्र हों, उसको उतनी ही अधिक जागृत अवस्था में समझना चाहिए।‘‘

आचार्य द्विवेदी जी ने हिंदी पत्रकारिता को साहित्य के सरोकारों से जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया। उनके संपादन में निकलने वाली ‘सरस्वती पत्रिका‘ का हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान है। किसी भी देश और जाति की उन्नति के बारे में यदि जानना हो तो उस देश का साहित्य वहां की स्थिति को बयान करता है। इस संदर्भ में दिसंबर 1917 के अंक में द्विवेदी जी ने लिखा है- ‘‘साहित्य ही ज्ञान और बोध का भंडार है। जिस जाति का साहित्य नहीं उस जाति की उन्नति नहीं हो सकती। क्योंकि जहां साहित्य नहीं वहां पूर्व प्राप्त ज्ञान भी नहीं और जहां पूर्व प्राप्त ज्ञान नहीं वहां उन्नति कैसी।‘‘

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में जो मानदंड स्थापित किए, वे आज भी प्रासंगिक और अनुकरणीय हैं। पत्रकारिता के वर्तमान दौर में जब साहित्यिक पत्रकारिता का स्थान पत्रकारिता के क्षेत्र में सिमटता जा रहा है, ऐसे समय में आचार्य जी की स्मृतियां जीवंत हो उठती हैं।

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