Friday, April 13, 2012

टाइटल सांग बने आइटम सांग


भारतीय सिनेमा की शुरूआत बीसवीं सदी के दूसरे दशक के पूर्वार्ध में हुई थी। बीसवीं सदी के भारतीय सिनेमा ने एक लंबा सफर तय किया। भारत में विभिन्न विधाओं की शुरूआत गुलामी के उस दौर में हुई, जब क्रांतिकारी परिवर्तनों की अधिकतम आवश्यकता थी। सिनेमा भी उस दौर से अछूता नहीं है। भारतीय सिनेमा जनसंचार के नए माध्यम के रूप में उभरकर आया जिसने वक्त की दास्तान को फिल्मों के रूप में प्रस्तुत किया।
सिनेमा को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने का काम किया उसके गीतों ने। भारतीय सिनमा के गीतों ने सही मायनों में सामाजिक सरोकारों को आवाज दी। सवाक  सिनेमा  की शुरूआत के साथ ही गीतों का महत्व महसूस किया जाने लगा था। उस दौर में गीत ही फिल्मों की पहचान थे और महत्वपूर्ण भावों की अभिव्यक्ति गीतों के माध्यम से ही की जाती थी। ‘राजा हरिशचन्द्र‘ से शुरू हुआ फिल्मी सफर आज भी विभिन्न बदलावों के साथ सतत जारी है। भारत के हिन्दी सिनेमा के एक सदी के सफर में गीतों में अधिकतम बदलाव देखने को मिलता है।
हिंदी सिनेमा के शुरूआती दौर में धार्मिक फिल्मों का निर्माण हुआ। भारत में पहली सवाक फिल्म का निर्माण आलमआरा के रूप में हुआ। जिसके पश्चात फिल्म निर्माण की गति में और तेजी देखने को मिली। आलमआरा के बाद बनने वाली अधिकतर फिल्में सामाजिक समस्याओं पर आधारित थीं। यहीं से हिंदी सिनेमा में गीतों की विधिवत शुरूआत होती है। हिंदी सिनेमा के पहले लोकप्रिय गायक के. एल सहगल के गीतों ने हिंदी सिनेमा में गीतों का महत्व को समझाया। उनके गाए गीतों ने एक कशिश पैदा की। सहगल के गाए गानों के दर्द ने सिने प्रेमियों को गीतों का मर्म समझाया। सहगल का गाया गीत ‘दिल जलता है तो जलने दे‘ को कालजयी गीत कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनके एक गीत ने उस दौर में धूम मचा दी थी। जिसके बोल थे ‘अब जीके क्या करेंगे जब दिल ही टूट गया‘। यह गीत सहगल को भी इतना प्रिय था कि उन्होंने कहा कि मेरी अंतिम यात्रा में भी यह गीत बजना चाहिए।
हिंदी सिनेमा में सहगल और सुरैया से शुरू हुई गीतों की यात्रा को मुकेश, रफी, गीता दत्त, लता मंगेशकर, किशोर कुमार, महेन्द्र कपूर, हेमंत एवं महबूब आदि ने बखूबी बढ़ाया। इन गायकों ने गीत गाये नहीं बल्कि शब्दों को आवाज दी, भावों को आवाज दी। मुकेश के गाए गीतों की बात की जाए तो उनके गीत संदेश लिए होते थे। जो दुनियावी झंझावतों में सकारात्मकता का संदेश देते हैं। मुकेश ने अधिकतर राजकपूर के लिए गीत गाए। यही कारण था कि मुकेश के जाने के बाद राजकपूर ने कहा था कि ‘‘मुकेश इस दुनिया से चले गए तो ऐसा लगता है मेरी आवाज चली गई‘‘। राजकपूर का अभिनय और मुकेश की आवाज यह एक परंपरा बन गई थी। इसका कारण उनकी जोड़ी की अपार सफलता भी थी।
 ‘‘आवारा हूं आवारा हूं‘‘ गीत ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सफलता अर्जित की। ‘‘सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी‘‘, ‘‘सजन रे झूठ मत बालो‘‘ जैसे गीत समाज के लिए मनोरंजन और संदेश लिए हुए थे। इसी प्रकार से मो. रफी के गीतों ने भी सिने जगत में अपनी मौजूदगी का जोरदार अहसास कराया। फिल्म ‘‘बैजू बावरा‘‘ ने रफी की लोकप्रियता को नई ऊंचाईयों तक पहुंचाया। ‘‘ओ दुनिया के रखवाले सुन दर्द भरे मेरे नाले‘‘, ‘‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज‘‘ जैसे गीतों को रफी ने इतने मनोयोग से गया था कि यह गीत जिसने भी सुने उसके दिल में उतर गए। प्रशंसकों ने यहां तक कहा था कि रफी की आवाज में वह जादू है कि पत्थर को भी पिघला दे।
उस दौर के गीतों में वह कशिश थी कि लोगों ने उन गीतों को सुना भी और समझा भी। उस दौर के गीतों में विशेष पहलू यह था कि गीतों के निर्माण के लिए विशेष तामझाम अथवा अत्यधिक खर्च की आवश्यकता नहीं थी। वक्त बदला तो बदल गया सिनेमा भी। लेकिन यह बदलाव गीतों के लिहाज से बहुत सार्थक साबित नहीं हुआ। वर्तमान दौर के गीतों को समझने की बात तो दूर है कई बार सुनने में भी कर्कश लगता है। पिछले दो तीन वर्षों से तो गीत जैसे बने ही नहीं हैं। बने हैं तो आइटम सांग और वही बन गए हैं टाइटल सांग। फिल्मों के टाइटल सांग के रूप में आइटम सांग को ही जाना जाता है। मुन्नी बदनाम हुई, टिंकू जिया, शीला की जवानी जैसे आइटम सांग फिल्मों के टाइटल सांग बन गए हैं। विशेष बात यह है कि फिल्म में इस प्रकार के गीतों के लिए भी जबरन जगह बनाई जा रही है, जगह है नहीं ऐसा प्रतीत होता है।
गीतों के लिए पटकथा में स्थान ही नहीं दिखता है। पटकथा में पिरोये गीत ही फिल्म के महत्वपूर्ण भावनात्मक दृश्यों को आवाज देते हैं। जिसको फिल्मकारों ने भूलने की कोशिश की है। संगीत को सार्थक बनाए रखने के लिए आवश्यकता है कि शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीतों को फिल्माया जाए। तभी हिंदी सिनेमा के गीत जनसरोकारों से जुड़ाव महसूस कर पाएंगे।

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