Saturday, April 20, 2013

साहित्यिक पत्रकारिता के ‘अमृत‘ विद्यानिवास मिश्र

हिंदी पत्रकारिता को शिखर तक पहुंचाने में हिंदी साहित्य और साहित्यकारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भारतीयता, भारतीय संस्कृति और सनातन संस्कृति के प्रवाह को जीवंत बनाए रखने में हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता ने अपना अथक योगदान दिया है। आज के दौर में हिंदी पत्रकारिता जिस प्रकार साहित्य से विलग दिखाई पड़ती है, ऐसी पहले न थी बल्कि एक वक्त तो ऐसा भी था, जब साहित्य और पत्रकारिता एक-दूसरे का सहारा बन आगे बढ़ रहे थे। हिंदी पत्रकारिता को उसका ध्येय पथ दिखलाने का कार्य समय-समय पर ऐसे पत्रकारों ने किया, जो साहित्य की विधा में भी सिद्धहस्त थे। भारतेंदु हरीशचंद्र, माखनलाल चतुर्वेदी, हनुमान प्रसाद पोद्दार, महावीर प्रसाद, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि इसी कड़ी के नाम हैं, जिन्होंने हिंदी की लड़ाई लड़ी। साहित्य और पत्रकारिता की इस विरासत को बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में प्रवाहमय बनाए रखने का कार्य किया विद्यानिवास मिश्र ने। मिश्र जी हिंदी साहित्य, परंपरा, संस्कृति के मर्मज्ञ थे। 
हिंदी पत्रकारिता और साहित्य के बेहतरीन और कारगर सम्मिश्रण की मिसाल पेश करने वाले विद्यानिवास मिश्र ने पत्रकारिता के माध्यम से भारतीयता को मुखरता प्रदान की। सन 1926 में गोरखपुर के पकड़डीहा गांव में जन्मे विद्यानिवास मिश्र अपनी बोली और संस्कृति के प्रति सदैव आग्रही रहे। सन 1945 में प्रयाग विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर एवं डाक्टरेट की उपाधि लेने के बाद उन्होंने अनेकों वर्षों तक आगरा, गोरखपुर, कैलिफोर्निया और वाशिंगटन विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। विद्यानिवास मिश्र देश के प्रतिष्ठित संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय एवं काशी विद्यापीठ के कुलपति भी रहे। इसके बाद अनेकों वर्षों तक वे आकाशवाणी और उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग में कार्यरत रहे। हिंदी साहित्य के सर्जक विद्यानिवास मिश्र ने साहित्य की ललित निबंध की विधा को नए आयाम दिए। हिंदी में ललित निबंध की विधा की शुरूआत प्रतापनारायण मिश्र और बालकष्ण भटट ने की थी, किंतु इसे ललित निबंधों का पूर्वाभास कहना ही उचित होगा। ललित निबंध की विधा के लोकप्रिय नामों की बात करें तो हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र एवं कुबेरनाथ राय आदि चर्चित नाम रहे हैं। लेकिन यदि लालित्य और शैली की प्रभाविता और परिमाण की विपुलता की बात की जाए तो विद्यानिवास मिश्र इन सभी से कहीं अग्रणी रहे हैं। विद्यानिवास मिश्र के साहित्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा ललित निबंध ही हैं। उनके ललित निबंधों के संग्रहों की संख्या भी 25 से अधिक होगी। 
        
 लोक संस्कृति और लोक मानस उनके ललित निबंधों के अभिन्न अंग थे, उस पर भी पौराणिक कथाओं और उपदेशों की फुहार उनके ललित निबंधों को और अधिक प्रवाहमय बना देते थे। उनके प्रमुख ललित निबंध संग्रह हैं- राधा माधव रंग रंगी, मेरे राम का मुकुट भीग रहा है, शैफाली झर रही है, चितवन की छांह, बंजारा मन, तुम चंदन हम पानी, महाभारत का काव्यार्थ, भ्रमरानंद के पत्र, वसंत आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं और साहित्य का खुला आकाश आदि आदि। वसंत ऋतु से विद्यानिवास मिश्र को विशेष लगाव था, उनके ललित निबंधों में ऋतुचर्य का वर्णन उनके निबंधों को जीवंतता प्रदान करता था। वसंत ऋतु पर लिखे अपने निबंध संकलन फागुन दुइ रे दिना में वसंत के पर्वों को व्याख्यायित करते हुए, अपना अहंकार इसमें डाल दो शीर्षक से लिखे निबंध में वे शिवरात्रि पर लिखते हैं-

‘‘शिव हमारी गाथाओं में बड़े यायावर हैं। बस जब मन में आया, बैल पर बोझा लादा और पार्वती संग निकल पड़े, बौराह वेश में। लोग ऐसे शिव को पहचान नहीं पाते। ऐसे यायावर विरूपिए को कौन शिव मानेगा ? वह भी कभी-कभी हाथ में खप्पर लिए। ऐसा भिखमंगा क्या शिव है ?"

इसके बाद इन पंक्तियों को विवेचित करते हुए विद्यानिवास मिश्र लिखते हैं-

‘‘हां, यह जो भीख मांग रहा है, वह अहंकार की भीख है। लाओ, अपना अहंकार इसमें डाल दो। उसे सब जगह भीख नहीं मिलती। कभी-कभी वह बहुत ऐश्वर्य देता है और पार्वती बिगड़ती हैं। क्या आप अपात्र को देते हैं ? शिव हंसते हैं, कहते हैं, इस ऐश्वर्य की गति जानती हो, क्या है ? मद है। और मद की गति तो कागभुसुंडि से पूछो, रावण से पूछो, बाणासुर से पूछो।"

इन पंक्तियों का औचित्य समझाते हुए मिश्र जी लिखते हैं-

‘‘पार्वती छेड़ती हैं कि देवताओं को सताने वालों को आप इतना प्रतापी क्यों बनाते हैं ? शिव अट्टाहास कर उठते हैं, उन्हें प्रतापी न बनाएं तो देवता आलसी हो जाएं, उन्हें झकझोरने के लिए कुछ कौतुक करना पड़ता है।"

यह मिश्र जी की अपनी उद्भावना है, प्रसंग पौराणिक हैं, किंतु वर्तमान पर लागू होते हैं। पुराण कथाओं का संदर्भ देते हुए विद्यानिवास मिश्र ने साहित्य के पाठकों को भारतीय संस्कति का मर्म समझाने का प्रयास किया है। उनके ललित निबंधों में जीवन दर्शन, संस्कृति, परंपरा और प्रकति के अनुपम सौंदर्य का तालमेल मिलता है। इस सबके बीच वसंत ऋतु का वर्णन उनके ललित निबंधों को और अधिक रसमय बना देता है। ललित निबंधों के माध्यम से साहित्य को अपना योगदान देने वाले विद्यानिवास हिंदी की प्रतिष्ठा हेतु सदैव संघर्षरत रहे, मारीशस से सूरीनाम तक अनेकों हिंदी सम्मेलनों में मिश्र जी की उपस्थिति ने हिंदी के संघर्ष को मजबूती प्रदान की। हिंदी की शब्द संपदा, हिंदी और हम, हिंदीमय जीवन और प्रौढ़ों का शब्द संसार जैसी उनकी पुस्तकों ने हिंदी की सम्प्रेषणीयता  के दायरे को विस्तृत किया। तुलसी और सूर समेत भारतेंदु, अज्ञेय, कबीर, रसखान, रैदास, रहीम और राहुल सांकृत्यायन की रचनाओं को संपादित कर उन्होंने हिंदी के साहित्य को विपुलता प्रदान की।

         विद्यानिवास जी कला एवं भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ थे। खजुराहो की चित्रकला का सूक्ष्मता और तार्किकता से अध्ययन कर उसकी नई अवधारणा प्रस्तुत करने वाले विद्यानिवास मिश्र ही थे। अकसर भारतीय चिंतक विदेशी विद्वानों से बात करते हुए खजुराहो की कलाकृतियों को लेकर कोई ठोस तार्किक जवाब नहीं दे पाते थे। विद्यानिवास जी ने अपने विवेचन के माध्यम से खजुराहो की कलाकृतियों की अवधारणा स्पष्ट करते हुए लिखा है-
‘‘यहां के मिथुन अंकन साधन हैं, साध्य नहीं। साधक की अर्चना का केंद्रबिंदु तो अकेली प्रतिमा के गर्भग्रह में है। यहां अभिव्यक्ति कला रस से भरपूर है। जिसकी अंतिम परिणति ब्रहम रूप है। हमारे दर्शन में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की जो मान्यताएं हैं, उनमें मोक्ष प्राप्ति से पूर्व का अंतिम सोपान है काम।"
 उन्होंने कहा कि यह हमारी नैतिक दुर्बलता ही है कि खजुराहो की कलाकृतियों में हम विकृत कामुकता की छवि पाते हैं। स्त्री पुरूष अनादि हैं, जिनके सहयोग से ही सृष्टि जनमती है।

                            सन 1990 के दशक में मिश्र जी ने नवभारत टाइम्स के संपादक के रूप में जिम्मेदारी संभाली। उदारीकरण के दौर में खांटी हिंदी पत्रकारिता को आगे बढ़ाने वाले महत्वपूर्ण पत्रकारों में से एक मिश्र जी ने नवभारत टाइम्स को हिंदी के प्रतिष्ठित समाचार पत्र के रूप में नई पहचान दिलाई। पत्रकारीय धर्म और उसकी सीमाओं को लेकर वे सदैव सचेत रहते थे। वे अकसर कहा करते थे कि-

‘‘मीडिया का काम नायकों का बखान करना अवश्य है, लेकिन नायक बनाना मीडिया का काम नहीं है।" 

अपने पत्रकारीय जीवन में भी विद्यानिवास मिश्र हिंदी के प्रति आग्रही बने रहे। वे अंग्रेजी के विद्वान थे, लेकिन हिंदी लिखते समय अंग्रेजी के शब्दों का घालमेल उन्हें पसंद नहीं था। उन्होंने नवभारत टाइम्स के संपादक की जिम्मेदारी ऐसे वक्त में संभाली, जब हिंदी पत्रों के मालिक उदारीकरण के बाद बाजारू दबाव में हिंदी में अंग्रेजी के घालमेल का प्रयास कर रहे थे। अखबार मालिकों की मान्यता थी कि युवा पाठकों को यदि लंबे समय तक पत्र से जोड़े रखना है, तो हिंदी में अंग्रेजी शब्दों को जबरदस्ती ही सही घुसाना ही होगा। नवभारत टाइम्स के मालिक समीर जैन की भी यही मान्यता थी कि हिंदी समाचार पत्रों में अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग होना वक्त की जरूरत है।  इन्हीं वाद-विवादों के बीच उन्होंने नवभारत टाइम्स के संपादक की जिम्मेदारी से स्वयं को मुक्त कर लिया, किंतु हिंदी में घालमेल को लेकर वे  कभी राजी नहीं हुए। हालांकि विद्यानिवास जी के नवभारत टाइम्स छोड़ने के बाद यह पत्र उसी राह पर आगे बढ़ा, जिस पर इसके मालिक समीर जैन ले जाना चाहते थे। विद्यानिवास जी ने नवभारत टाइम्स से अलग होने के बाद साहित्य अमृत पत्रिका का संपादन किया। व्यावसायिकता के बाजारू दौर में साहित्य अमृत पत्रिका ने विद्यानिवास जी के संपादकत्व में बतौर साहित्यिक पत्रिका नए मानक स्थापित किए। साहित्य अमृत का सौवां अंक भी विद्यानिवास जी के समय ही निकला था। पत्रिका के सौवें अंक के संपादकीय में संकल्पपूर्ण शब्दों में लिखा था- 
‘‘हमें इतना परितोष है कि हम साहित्य अमृत पत्रिका को साहित्य की निरंतरता का मानदंड बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं।" 

साहित्य अमृत पत्रिका ऐसे वक्त में जब पत्रकारीय मूल्य अन्य स्तंभों की भांति ही ढलान पर हों, बाजार के दबाव में आए बिना भारतीय संस्कृति के महत्व को उद्घाटित करती रही है। सौवें अंक के संपादकीय में भारतीयता का उद्घोष करते हुए विद्यानिवास मिश्र ने जयशंकर प्रसाद की पंक्तियों को उद्धृत करते हुए लिखा-

‘‘किसी का हमने छीना नहीं, प्रकति का रहा पालना यही, हमारी जन्मभूमि थी यही, कहीं से हम आए थे नहीं।"

मिश्र जी साहित्य अमृत पत्रिका का संपादन अंतिम समय तक करते रहे। साहित्य अकादमी पुरस्कार, कालिदास पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, पद्म विभूषण, पद्मश्री और अनेकों उपाधियों से सम्मानित विद्यानिवास मिश्र का 14 फरवरी, 2005 का सड़क दुर्घटना में देहांत हो गया। उस वर्ष उनका प्रिय पर्व वसंत पंचमी 13 फरवरी को था। वसंत ऋतु में ही वे अपना शरीर त्यागकर इहलोक की यात्रा पर निकल पड़े। पं. विद्यानिवास मिश्र के इस दुनिया से जाने के बाद भी उनकी पत्रकारिता और साहित्य की सौरभ इस रचनाशील जगत को महकाती रहेगी। 

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