
चलो नीचे ही उतरने की कोशिश करते हैं, कोई आंदोलन करते हैं। कूपा, पटेल और जाट आंदोलन इसी सोच की परिणति हैं। यह तीनों ही जातियां भारत की सामाजिक व्यवस्था में हमेशा से उच्च मध्य पायदान पर रही हैं। इसलिए जब समाज में दलितों और पिछड़ों को आरक्षण देने की व्यवस्था की गई तो इन पर विचार नहीं किया गया। यह जातियां समाज में उच्च मध्य पायदान पर रहने के साथ ही आर्थिक तौर पर भी सक्षम रही हैं। (व्यक्तिगत तौर पर किसी का पिछड़ापन अलग बात है) लेकिन अब इन जातियों ने आरक्षण की मांग को लेकर हिंसक आंदोलन शुरू कर दिए हैं।
यह अपेक्षाकृत ताकतवर जातियां आखिर क्यों आरक्षण के लिए आंदोलन कर रही हैं? इसकी पड़ताल करना जरूरी है। यह सही है कि आजादी के वक्त जो हालात थे, उसमें सवर्ण लोग प्रभुत्वशाली भूमिका में थे, खेती से लेकर नौकरी-चाकरी तक पर उनकी स्थिति बेहद मजबूत थी। दलितों और आदिवासियों के पास आगे बढ़ने के लिए संसाधानों का अभाव था, उनकी सामाजिक स्थिति भी बेहद कमजोर थी। सवर्णों के अमानवीय बर्ताव से वह पीड़ित थे, उससे उनकी मुक्ति के संविधान में कुछ प्रावधान किया जाना जरूरी थी। संविधान निर्माताओं ने ऐसा किया भी, दलितों को 15 पर्सेंट और आदिवासियों को 7.5 पर्सेंट का आरक्षण प्रदान किया गया। 10 साल के बाद इस व्यवस्था की समीक्षा की जानी थी। लेकिन इसकी मियाद बढ़ती रही, इसकी वजह यह थी कि जिन लोगों के लिए यह लागू किया था, उस समाज को समग्र तौर पर इस व्यवस्था का लाभ नहीं मिल सका।
आम सहमति है कि पिछड़े समाज को मिलने वाला आरक्षण उनके समग्र विकास तक जारी रहना चाहिए। यहां मैं साफ कर दूं कि मेरी भी यही राय है। लेकिन उदारीकरण की नीतियों के बाद से सामाजिक और आर्थिक हालात काफी बदल गए हैं। एक दौर में कुछ निश्चित तबकों के लिए आरक्षण की व्यवस्था से अन्य जातियां बहुत प्रभावित नहीं होती थीं क्योंकि उनके पास खेती जैसे अन्य उपक्रम थे। उसका एक वर्ग खेती के जरिए अपना गुजारा कर लेता थे।
उदारीकरण के बाद से जीडीपी आधारित ग्रोथ के दौर में नौकरियों का प्रभुत्व बढ़ा है। पलायन की दर बढ़ी है, गांव में खेती कर रहे युवाओं को अब निखट्टू तक कहा जाने लगा है। शादियां भी अब खेती नहीं नौकरी देख कर होने लगी है।jat दूसरी तरफ जनसंख्या वृद्धि के चलते जोतें छोटी होती गई हैं, अकेले खेती पर निर्भर रहने वाले परिवार विरले ही होंगे। इसलिए अब हर जाति-समुदाय के लोग नौकरियों के लिए प्रयासरत हैं। वह भी सरकारी नौकरी, जहां इस उथल-पुथल के दौर में जिंदगी स्थिरता से कट सके। कूपा, पटेल और जाट जैसी बिरादरियों के आरक्षण की जंग में उतरने के मूल कारण यही हैं।
ध्यान रखने की जरूरत है कि नीतियां भी इस पर निर्भर होती हैं कि हमने विकास के लिए या देश चलाने के लिए मॉडल कौन सा चुना है। फिलहाल देश जीडीपी आधारित विकास मॉडल पर चल रहा है, जहां कृषि में अप्रत्यक्ष बेरोजगारी की स्थिति है। ऐसे में कृषि में संलग्न रही जातियां परेशान हैं। उल्लेखनीय है कि जाट, पटेल और कूपा तीनों ही खेतिहर समुदाय हैं। भले ही इन जातियों का बीता इतिहास सुनहरा रहा हो, लेकिन इनमें भी एक तबका ऐसा है जो खेती की जोतें छोटी होने और नौकरियां न मिलने के चलते गरीबी के दलदल में फंस गया है। लेकिन, इस तरह आरक्षण को रेवड़ी की तरह बांटना भी तो सही नहीं होगा। ऐसे में सरकार को वोटबैंक की राजनीति और किस राज्य में किस जाति की कितनी आबादी है, इस गणित में फंसे बिना कुछ उपाय करने चाहिए।
इनमें से कुछ उपाय जो मुझे सूझे हैं, मैं उनका उल्लेख कर रहा हूं। यदि आपके जेहन में भी इस आरक्षण व्यवस्था को लेकर कुछ सुझाव हैं तो आप उनका जिक्र कर सकते हैं।
– दलितों एवं पिछड़ी जातियों को मिल रहा आरक्षण जस का तस रहना चाहिए।
– जाट, कूपा एवं पटेल समेत अन्य जातियों के गरीबों को (पूरे समुदाय को नहीं) नौकरी एवं शिक्षा में आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाना चाहिए।
– एलपीजी सब्सिडी वापस लौटाने की तरह ही कुछ ऐसे लोग जो समाज में ऊंचे पायदान पर पहुंच चुके हैं और उन्हें लगता है कि अब वे आरक्षण के बिना आगे बढ़ सकते हैं, उन्हें इस सुविधा से खुद को अलग कर लेना चाहिए। इसकी मुहिम समुदायों के नेताओं की मदद से ही आगे बढ़ सकती है।
– कुछ लोगों के आरक्षण लौटाने से उनके ही समाज के किसी गरीब को मदद मिलेगी।
– देश में कई ऐसे क्षेत्र हैं, जो बेहद पिछड़े हैं। वहां रहने वाले किसी भी समुदाय के लिए मुख्यधारा में शामिल होना चुनौती है। ऐसे लोगों को उनकी भौगोलिक स्थिति के आधार पर ही केंद्रीय नौकरियों एवं शिक्षण संस्थानों में आरक्षण दिया जाना चाहिए।
– लद्दाख, हिमाचल-उत्तराखंड के दुर्गम पहाड़ी इलाके और पूर्वोत्तर राज्यों को इसमें शामिल किया जा सकता है।
– आरक्षण को लेकर राजनीति नहीं होनी चाहिए। इससे अधिक आबादी वाली जातियों को वोट बैंक का फायदा मिलता है, लेकिन अल्पसंख्यक जातियों की परवाह करना भी तो सरकार का ही काम है।
– आरक्षण का फैसला किसी समाज की स्थिति का आकलन करने के बाद ही होना चाहिए। जिसकी लाठी, उसका आरक्षण की तर्ज पर फैसले हुए तो हालात भयावह हो सकते हैं।
(नवभारत टाइम्स डॉट कॉम में प्रकाशित ब्लॉग)
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