शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मिटने वालों का यही बाकि निशान होगा...
आज २३ मार्च है, २१वीं सदी में जी रहे भारत के युवाओं को क्या कुछ याद है. शायद नहीं, क्योंकि उनके आदर्श अब राष्ट्रवाद के प्रणेता नहीं बल्कि फ़िल्मी हीरो और क्रिकेट सितारे हो गए हैं. वर्ल्ड कप के दौरान २३ मार्च राजगुरु, भगत सिंह और सुखदेव का बलिदान दिवस कब चुपके से आ गया शायद किसी को यह पता ही नहीं चला. या कहें कि हमने अपनी स्मरण शक्ति पर जोर देना ही छोड़ दिया है. सन १९३१ में २३ मार्च के ही दिन भारत मां के तीन सपूतों ने राष्ट्रयज्ञ में अपनी पूर्णाहुति दे दी थी. इस राष्ट्रभक्ति के पीछे उनका यही जज्बा काम कर रह था, कि हमारे बलिदान से देश को आजादी और जागृति मिलेगी. उनके इस बलिदान से देश को आजादी तो मिली है, लेकिन शायद हमें जागृति नहीं मिली.
यदि हमें जागृति मिली होती और हमारा राष्ट्रवाद पूर्णतया जागृत होता तो हम इनको भूलने का प्रयास न करते. देश के पूर्व प्रधानमंत्री के नाम से विभिन्न आयोजन और कार्यक्रम करने वाली सरकार ने इन शहीदों को सलामी देने का क्या कोई प्रयास किया है? इसमें अन्य राजनीतिक दल भी पीछे नहीं हैं, जो अपनी पार्टी के भ्रष्ट नेताओं के भी जन्मदिवस या पुण्य तिथि पर तो जोरदार जलसों का आयोजन करते हैं. लेकिन राष्ट्र के इन अमर नायकों की पुण्यस्मृति में कोई कार्यक्रम नहीं करते हैं. क्या इन राष्ट्र नायकों का बलिदान इन तथाकथित बलिदानी नेताओं से किसी मायने में कम था?
स्वतंत्रता की देवी के चरणों में स्वयं को न्यौछावर करने वाले शिवराम राजगुरु, भगत सिंह और सुखदेव थापर के जीवन से प्रेरणा लेने के लिए हमारे पास बहुत कुछ है. शहीद भगत सिंह का जन्म २८ सितम्बर १९०७ को तत्कालीन पंजाब के लयाल पुर जिले में हुआ था. भगत सिंह बाल्यकाल से ही प्रखर राष्ट्रभक्त थे, जिसका उदाहरण मै एक प्रसंग के माध्यम से देना चाहूँगा.
यह बात उस समय की है जब भगत तीसरी कक्षा के विद्यार्थी थे. भगत सिंह अपने पिता किशन सिंह जी के साथ आम के बगीचे में गए. वहां भगत सिंह जमीन में जगह-जगह पर तिनके गाड़ने लगे, पिता ने पूछा भगत ये क्या कर रहे हो तो भगत का उत्तर था कि पिताजी मैं बंदूकें बो रहा हूँ. यह प्रसंग इतना समझने के लिए पर्याप्त है कि भगत बाल्यावस्था से ही कितने क्रांतिकारी विचारों के थे.
भारतभूमि की स्वतंत्रता के लिए समर्पित होने वाले दूसरे नायक थे शिवराम हरी राजगुरु जिनका जन्म २४ अगस्त १९०८ को महाराष्ट्र में हुआ था. राजगुरु ने अंग्रेज पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी, उन्होंने काकोरी कांड में भी बहुमूल्य योगदान दिया था. शिवराम राजगुरु सांडर्स की हत्या के बाद पुलिस से बचते हुए नागपुर में संघ के एक स्वयंसेवक के घर आकर ठहरे थे. राजगुरु इसी दौरान संघ संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार से भी मिले थे. लेकिन कुछ ही दिनों बाद वे पुणे चले गए जहां उनको गिरफ्तार कर लिया गया और अंततः उन्होंने २३ मार्च १९३१ को अपना सर्वस्व बलिदान करते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया.
राष्ट्रयज्ञ की बलिवेदी पर स्वयं को समर्पित करने वाले तीसरे अमर बलिदानी थे सुखदेव थापर. इनका जन्म १५ मई १९०७ को लुधियाना के नौगढ़ा में हुआ था. इनके पिताजी का नाम रामलाल था. सुखदेव के हृदय में किशोरावस्था से ही राष्ट्र प्रेम हिलोरे लेने लगा था. युवावस्था में सुखदेव नौजवान भारत सभा से जुड़े और ब्रिटिश सरकार को सबक सिखाने के प्रयासों में तन-मन से जुट गए. सुखदेव अमर क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल (१८९७-१९२७) से विशेष प्रभावित थे. सुखदेव सन १९२९ में लाहौर जेल में क्रांतिकारियों द्वारा की गयी भूख हड़ताल में भी शामिल रहे थे. सुखदेव थापर ने भी अंततः २३ मार्च १९३१ को अपने अमर साथियों के साथ अमरत्व को प्राप्त किया था. राष्ट्रकवि दिनकर की यह पंक्तियाँ इन अमर शहीदों की याद में बरबस ही याद आ जाती हैं.
चले गए जो बलिवेदी पर, लिए बिना गर्दन का मोल.
कलम आज उनकी जय बोल...........
इन अमर बलिदानियों का अमर बलिदान हमें आज भी प्रेरणा देता है. जिस प्रकार से महाराष्ट्र के राजगुरु और पंजाब के भगत सिंह और सुखदेव थापर ने एक होकर देश प्रेम की अलख जगाई थी. उसी प्रकार से हम सभी देशवासियों को अपने क्षुद्र स्वार्थों को भूलकर देश की वर्तमान समस्याओं से लड़ने के लिए एक हो जाना चाहिए. तभी हम अमर शहीदों के सपनों के भारत को साकार रूप दे पाएंगे.