सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हिंदी साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता में अमिट हस्ताक्षर के समान हैं। अपने नाम के अनुरूप वे निराले ही थे। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला मूलतः छायावादी कवि थे, उनका जीवन भी कविता के समान ही था। उनके कवि जीवन के आगे कई बार उनके पत्रकार होने का परिचय सामने नहीं आ पाता है। जिसका अवलोकन करने का हमने प्रयास किया है।
महाकवि और महामानव जैसे उपनामों से सम्मानित निराला का जन्म बंगाल के मेदिनीपुर में हुआ था। निराला जी की जन्मतिथि के विषय में मतैक्य नहीं है, परंतु वे अपना जन्मदिन बसंत पंचमी को ही मनाते थे। निराला का साहित्य ही नहीं साहित्यिक पत्रकारिता में भी महत्वपूर्ण योगदान था। भारतेंदु हरिशचंद्र के माध्यम से शुरू की गई साहित्यिक पत्रकारिता की विरासत महावीर प्रसाद द्विवेदी के बाद निराला जी को ही मिली थी। निराला ने साहित्यिक पत्रकारिता की शुरूआत ऐसे समय में की थी जब राजनीतिक पत्रकारिता के समकक्ष साहित्यिक पत्रकारिता ने भी अपना स्थान बना लिया था।
महामानव निराला का संबंध प्रमुख रूप से प्रभा, सरस्वती, माधुरी, आदर्ष, शिक्षा और मतवाला जैसे प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं से रहा। मतवाला से उनका विशेष लगाव रहा था। 23 अगस्त, 1923 को जब मतवाला निकला, तो उसपर छपा मोटो निराला ने ही तैयार किया था। वह मोटो इस प्रकार था-
अमिय-गरल, शशि-शीकर, रवि-कर, राग-विराग भरा प्याला
पीते हैं जो साधक उनका प्यारा है यह मतवाला।
मतवाला के पहले अंक में ही रक्षाबंधन पर उनकी कविता छपी थी। इसके बाद तो निराला जी की कविता तो मतवाला की पहचान ही बन गई थी। वे मतवाला में गर्जन सिंह वर्मा, मतवाले, जनाबआलि, शौहर आदि नामों से लिखते थे। निराला भी उनका छद्म नाम ही था। जो आगे चलकर उनका उपनापम ही बन गया। इसका कारण यह था कि पत्र-पत्रिकाओं के छपने जाने से पूर्व कई बार लेखकों की रचनाएं नहीं मिल पाती थीं और संपादक ही अपनी रचनाओं को छद्म नाम प्रकाशित किया करते थे। उनकी रचनाओं में तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों के प्रति चेतना का भाव हुआ करता था।
निराला गांधीवादी युग के साहित्यिक पत्रकार थे। वे गांधी जी के स्वदेशी आंदोलन और चरखा नीति के समर्थक थे। निराला अपनी बात को निराले ही ढंग से रखते थे। एक बार उन्होंने महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन में निकलने वाली सरस्वती पत्रिका की आलोचना की, तो द्विवेदी जी ने मतवाला को पूर्णतया संशोधित करके निराला के पास भेज दिया। निराला ने अपने समय के प्रतिष्ठित पत्र समन्वय में भी अपना योगदान दिया। समन्वय में उनके द्वारा अनूदित रामकृष्ण परमहंस की बांग्ला जीवनी का हिंदी अनुवाद छपा करता था। इसमें निराला अपना नाम एक दार्शनिक देते थे।
महामानव निराला की ने अपनी कविताओं के माध्यम से आर्थिक विपन्नता को बड़े ही मार्मिक ढंग से चित्रित किया था। जिसका उदाहरण है उनकी यह कविता-
साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,
बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि पाने की ओर बढ़ाये।
भूख से सूख ओठ जब जाते
छाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?
निराला जी की रचनाओं में उनके जीवन का दर्द सुनाई देता था। अपनी पुत्री की मृत्यु ने निराला को झकझोर दिया था। उस महामानव ने बेटी की विकलता में निम्न पंक्तियों को लिखा था, जिसे विभिन्न लेखकों ने सर्वश्रेष्ठ शोक गीत की संज्ञा दी है-
मुझ भाग्यहीन की तू संबल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
छुख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूं आज जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हो भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!
निराला ने सदा ही फक्कड़ जीवन जिया, कष्टों को वे निराले ही ढंग से सह लिया करते थे। अपने से ज्यादा औरों के कष्टों से उनको पीड़ा हुआ करती थी। यही उनका स्वभाव था। उनका संपूर्ण जीवन दुखों और कष्टों में ही बीता। यही कारण था कि अपने अंतिम समय में वे आध्यात्मिक हो गए थे। वे तुलसीदास के प्रशंसक थे, शायद रामचरितमानस से ही उनको कष्टों को गले लगाने की प्रेरणा मिलती थी।
निराला जीवन पर्यंत हिंदी की सेवा में संलग्न रहे। महामानव निराला ने 15 अक्टूबर, 1961 को अपना पार्थिव शरीर त्याग दिया। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने निराला की मृत्यु के पश्चात् उनके संघर्षमय जीवन के बारे में ‘हिंदी टाइम्स‘ में लिखा था-
‘‘राष्ट्रपिता बापू की मृत्यु के बाद मौलाना आजाद ने अपने एक भाषण में कहा था कि कहीं बापू के खून के छींटे हमारे ही हाथों पर तो नहीं! यही प्रश्न निराला जी के संबंध में हम लोगों के मन में भी उत्पन्न होता है।
राष्ट्रकवि दिनकर की यह पंक्तियां निराला जैसे महामानव के संघर्षपूर्ण साहित्यिक जीवन को बयां करती हैं। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का साहित्यिक और पत्रकार जीवन वर्तमान समय के पत्रकारों को पत्रकारिता के क्षेत्र में एक साधक के रूप में कार्य करने की प्रेरणा देता है।
Saturday, February 25, 2012
पत्रकारिता पवित्र सेवा कार्य है- दशरथ प्रसाद द्विवेदी
हिंदी पत्रकारिता ने अपने प्रारंभिक काल से ही विभिन्न परिवर्तनों और आंदोलनों में उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह किया है। राष्ट्रवाद को यदि पत्रकारिता का प्राणतत्व भी कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। समाज के हर व्यक्ति के ह्दय को स्वदेश प्रेम के भाव से परिपूर्ण करने का कार्य हिंदी पत्रकारिता ने अपने उद्भव काल से ही किया है। इसी प्रखर राष्ट्र भाव को जन-जन में जागृत करने का कार्य दशरथ प्रसाद द्विवेदी जी ने साप्ताहिक पत्र स्वदेश के माध्यम से किया था। द्विवेदी जी ने अपने पत्र ‘स्वदेश‘ के माध्यम से लोगों का जागरण किया। उनके पत्र ‘स्वदेश‘ के प्रथम पृष्ठ पर ही स्वराष्ट्र धर्म की भावना को जागृत करने वाली निम्नलिखित पंक्तियां लिखी रहती थीं-
‘‘जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह ह्दय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।।‘‘
‘स्वदेश‘ में संपादकीय टिप्पणी के ऊपर कलात्मक ढंग से लिखा रहता था-
‘‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसि‘‘
दशरथ जी थानेदारी की नौकरी छोड़कर पत्रकारिता के क्षेत्र में आए थे। गणेश शंकर विद्यार्थी के ‘प्रताप‘ में उनके सहायक भी रहे थे, दशरथ जी। वहीं उन्होंने ‘स्वदेशी' भाव का पाठ पढ़ा था, जिसके लिए वे जीवन-पर्यंत समर्पण भाव से कार्य करते रहे।
दशरथ प्रसाद द्विवेदी की पत्रकारिता का मूल स्वर राष्ट्रवाद ही था, शायद गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे प्रखर पत्रकार के सहयोगी होने का भी यह प्रभाव रहा हो।
पं दशरथ प्रसाद द्विवेदी ने पत्रकारिता के कार्य को एक सेवाकार्य मानते हुए अपना कार्य किया और आने वाली पत्रकार पीढ़ी को भी यही संदेश दिया। पत्रकारिता के क्षेत्र को समाज सेवा का माध्यम बताते हुए उन्होंने लिखा था-
‘‘अखबारनवीसी अथवा पत्रकार जीवन भला है या बुरा ? इस प्रश्न का का कोई दो टूक उत्तर नहीं दिया जा सकता। किंतु किसी को अपना जीवन दिव्य और उपयोगी बनाना है तो यह एक पवित्र सेवा है, इसमें जरा भी संदेह नहीं।‘‘ (स्वतंत्रता संग्राम की पत्रकारिता और दशरथ प्रसाद द्विवेदी- डा. अर्जुन तिवारी)
ऐसे समय में जब पत्रकारिता के क्षेत्र में आने वाले लोग ग्लैमर जानकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आते हैं, तब दशरथ जी की निम्न पंक्तियां समीचीन जान पड़ती हैं-
‘‘हिंदी पत्रकारिता की नींव ही कुछ ऐसी पड़ी है कि अपना उल्लू सीधा करने वालों की इसमें गुंजाइश ही बहुत कम है। शुद्ध सेवा-भाव को लेकर त्याग एवं तप का जीवन बिताने वाले लोग ही अब तक हिंदी अखबारनवीसी में पनपे हैं।‘‘(स्वतंत्रता संग्राम की पत्रकारिता और दशरथ प्रसाद द्विवेदी- डा. अर्जुन तिवारी)
दशरथ प्रसाद द्विवेदी ने पत्रकारिता को एक मिशन मानते हुए कार्य किया। पत्र चलाने के लिए विभिन्न आर्थिक आवश्यकताओं की अधिक परवाह न करते हुए उन्होंने विज्ञापनों के बिना ही ‘स्वदेश‘ को लंबे समय तक सफलतापूर्वक चलाया। यद्यपि वे हिंदी समाचार पत्रों के प्रति सदैव चिंतित भी रहे। हिंदी पत्रों के दर्द को बयां करते हुए उन्होंने लिखा था-
‘‘हिंदी समाचार पत्रों का कोई पुरसाहाल (हाल पूछने वाला) नहीं (हाल पूछने वाला) हम जानते हैं अंग्रेजी पत्र अखबारी संसार में बढ़े-चढ़े हैं, उनकी बहुत कुछ प्रतिष्ठा है, अपने क्षेत्र में उनकी अच्छी पैठ है, वे काम भी अच्छा करते हैं, किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि देशी भाषाओं में निकलने वाले अपने अन्य सहयोगियों को इस प्रकार उपेक्षा की दृष्टि से देखें।‘‘ (स्वदेश, 23/06/1919)
वर्तमान समय में पत्रकारिता पर भी निगरानी की बात जोरों पर है। ऐसे समय में दशरथ जी की निम्न पंक्तियां दृष्ट्व्य हैं-
‘‘हमारी समझ से तो हिंदी प्रेस एसोसिएशन को अभी दो काम हाथ में लेना चाहिए। एक तो यह कि हिंदी के प्रत्येक पत्र पर अपना नियंत्रण रखे और इस बात का प्रयत्न हो कि कोई भी पत्र-पत्रिका बहकी हुई बातें न लिखे।‘‘ (स्वदेश, 30/06/1919)
पत्रकारिता के क्षेत्र में बढ़ते व्यावसायिक दबावों के कारण अक्सर समाचारपत्रों को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है। यह पत्रकारिता के लिए शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता है। पं दशरथ प्रसाद द्विवेदी ने समाचार पत्रों की आर्थिक समस्याओं के निराकरण के संबंध में लिखा था-
‘‘प्रेस एसोसिएशन को खास तौर पर यह कार्य करना चाहिए कि वह हिंदी पत्रों और प्रेसों का अधिकांश भार अपने ऊपर ले। समय कुसमय वह उनकी मदद करे। हिंदी जनाता को अखबारों के पढ़ने की ओर झुकाकर वह अपना कोष भरे।‘‘ (स्वदेश, 30/06/1919)
दशरथ जी ने पत्रकारिता में अपना योगदान अपने लेखन के माध्यम से ही नहीं बल्कि पत्रकारिता के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़कर भी दिया। ब्रिटिश सरकार द्वारा सन 1910 लागू किए गए प्रेस एक्ट का मुखर विरोध करने वालों में दशरथ जी का प्रमुखता से नाम लिया जा सकता है। प्रेस एक्ट का विरोध करने के लिए उन्होंने तत्कालीन समाचार पत्रों से एकजुट होने का आह्वान किया और प्रेस एसोसिएशन के गठन में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।
दशरथ जी ने विपरीत परिस्थितियों में हिंदी प्रेस एसोसिएशन के गठन के माध्यम से समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं को बल प्रदान किया। इस संदर्भ में उन्होंने लिखा था-
‘‘हिंदी प्रेस एसोसिएशन के संगठन में इस बात का ध्यान देना चाहिए कि आगे चलकर, वह भी अपने अधीनस्थ प्रेसों व पत्रों को जोरदार बना सके।‘‘
दशरथ जी ने ‘स्वदेश‘ के माध्यम से जन-जन तक तिलक और गांधी के विचारों को प्रसारित किया। स्वदेश की लोकप्रियता का ही परिणाम था कि प्रेमचन्द, सोहनलाल द्विवेदी, अयोध्या सिंह हरिऔध और मैथीलीशरण गुप्त जैसे विभिन्न महान साहित्यकारों ने स्वदेश को अपना सहयोग दिया।
ऐसे समय में जब साहित्यिक पत्रों एवं पत्रिकाओं की संख्या में कमी आई है तथा साहित्य और पत्रकारिता के बीच दूरी बढ़ी है। तब दशरथ प्रसाद द्विवेदी जैसे योद्धा पत्रकार के प्रेरक विचार वर्तमान पत्रकार पीढ़ी के लिए अनुकरणीय जान पड़ते हैं।
‘‘जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह ह्दय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।।‘‘
‘स्वदेश‘ में संपादकीय टिप्पणी के ऊपर कलात्मक ढंग से लिखा रहता था-
‘‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसि‘‘
दशरथ जी थानेदारी की नौकरी छोड़कर पत्रकारिता के क्षेत्र में आए थे। गणेश शंकर विद्यार्थी के ‘प्रताप‘ में उनके सहायक भी रहे थे, दशरथ जी। वहीं उन्होंने ‘स्वदेशी' भाव का पाठ पढ़ा था, जिसके लिए वे जीवन-पर्यंत समर्पण भाव से कार्य करते रहे।
दशरथ प्रसाद द्विवेदी की पत्रकारिता का मूल स्वर राष्ट्रवाद ही था, शायद गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे प्रखर पत्रकार के सहयोगी होने का भी यह प्रभाव रहा हो।
पं दशरथ प्रसाद द्विवेदी ने पत्रकारिता के कार्य को एक सेवाकार्य मानते हुए अपना कार्य किया और आने वाली पत्रकार पीढ़ी को भी यही संदेश दिया। पत्रकारिता के क्षेत्र को समाज सेवा का माध्यम बताते हुए उन्होंने लिखा था-
‘‘अखबारनवीसी अथवा पत्रकार जीवन भला है या बुरा ? इस प्रश्न का का कोई दो टूक उत्तर नहीं दिया जा सकता। किंतु किसी को अपना जीवन दिव्य और उपयोगी बनाना है तो यह एक पवित्र सेवा है, इसमें जरा भी संदेह नहीं।‘‘ (स्वतंत्रता संग्राम की पत्रकारिता और दशरथ प्रसाद द्विवेदी- डा. अर्जुन तिवारी)
ऐसे समय में जब पत्रकारिता के क्षेत्र में आने वाले लोग ग्लैमर जानकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आते हैं, तब दशरथ जी की निम्न पंक्तियां समीचीन जान पड़ती हैं-
‘‘हिंदी पत्रकारिता की नींव ही कुछ ऐसी पड़ी है कि अपना उल्लू सीधा करने वालों की इसमें गुंजाइश ही बहुत कम है। शुद्ध सेवा-भाव को लेकर त्याग एवं तप का जीवन बिताने वाले लोग ही अब तक हिंदी अखबारनवीसी में पनपे हैं।‘‘(स्वतंत्रता संग्राम की पत्रकारिता और दशरथ प्रसाद द्विवेदी- डा. अर्जुन तिवारी)
दशरथ प्रसाद द्विवेदी ने पत्रकारिता को एक मिशन मानते हुए कार्य किया। पत्र चलाने के लिए विभिन्न आर्थिक आवश्यकताओं की अधिक परवाह न करते हुए उन्होंने विज्ञापनों के बिना ही ‘स्वदेश‘ को लंबे समय तक सफलतापूर्वक चलाया। यद्यपि वे हिंदी समाचार पत्रों के प्रति सदैव चिंतित भी रहे। हिंदी पत्रों के दर्द को बयां करते हुए उन्होंने लिखा था-
‘‘हिंदी समाचार पत्रों का कोई पुरसाहाल (हाल पूछने वाला) नहीं (हाल पूछने वाला) हम जानते हैं अंग्रेजी पत्र अखबारी संसार में बढ़े-चढ़े हैं, उनकी बहुत कुछ प्रतिष्ठा है, अपने क्षेत्र में उनकी अच्छी पैठ है, वे काम भी अच्छा करते हैं, किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि देशी भाषाओं में निकलने वाले अपने अन्य सहयोगियों को इस प्रकार उपेक्षा की दृष्टि से देखें।‘‘ (स्वदेश, 23/06/1919)
वर्तमान समय में पत्रकारिता पर भी निगरानी की बात जोरों पर है। ऐसे समय में दशरथ जी की निम्न पंक्तियां दृष्ट्व्य हैं-
‘‘हमारी समझ से तो हिंदी प्रेस एसोसिएशन को अभी दो काम हाथ में लेना चाहिए। एक तो यह कि हिंदी के प्रत्येक पत्र पर अपना नियंत्रण रखे और इस बात का प्रयत्न हो कि कोई भी पत्र-पत्रिका बहकी हुई बातें न लिखे।‘‘ (स्वदेश, 30/06/1919)
पत्रकारिता के क्षेत्र में बढ़ते व्यावसायिक दबावों के कारण अक्सर समाचारपत्रों को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है। यह पत्रकारिता के लिए शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता है। पं दशरथ प्रसाद द्विवेदी ने समाचार पत्रों की आर्थिक समस्याओं के निराकरण के संबंध में लिखा था-
‘‘प्रेस एसोसिएशन को खास तौर पर यह कार्य करना चाहिए कि वह हिंदी पत्रों और प्रेसों का अधिकांश भार अपने ऊपर ले। समय कुसमय वह उनकी मदद करे। हिंदी जनाता को अखबारों के पढ़ने की ओर झुकाकर वह अपना कोष भरे।‘‘ (स्वदेश, 30/06/1919)
दशरथ जी ने पत्रकारिता में अपना योगदान अपने लेखन के माध्यम से ही नहीं बल्कि पत्रकारिता के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़कर भी दिया। ब्रिटिश सरकार द्वारा सन 1910 लागू किए गए प्रेस एक्ट का मुखर विरोध करने वालों में दशरथ जी का प्रमुखता से नाम लिया जा सकता है। प्रेस एक्ट का विरोध करने के लिए उन्होंने तत्कालीन समाचार पत्रों से एकजुट होने का आह्वान किया और प्रेस एसोसिएशन के गठन में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।
दशरथ जी ने विपरीत परिस्थितियों में हिंदी प्रेस एसोसिएशन के गठन के माध्यम से समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं को बल प्रदान किया। इस संदर्भ में उन्होंने लिखा था-
‘‘हिंदी प्रेस एसोसिएशन के संगठन में इस बात का ध्यान देना चाहिए कि आगे चलकर, वह भी अपने अधीनस्थ प्रेसों व पत्रों को जोरदार बना सके।‘‘
दशरथ जी ने ‘स्वदेश‘ के माध्यम से जन-जन तक तिलक और गांधी के विचारों को प्रसारित किया। स्वदेश की लोकप्रियता का ही परिणाम था कि प्रेमचन्द, सोहनलाल द्विवेदी, अयोध्या सिंह हरिऔध और मैथीलीशरण गुप्त जैसे विभिन्न महान साहित्यकारों ने स्वदेश को अपना सहयोग दिया।
ऐसे समय में जब साहित्यिक पत्रों एवं पत्रिकाओं की संख्या में कमी आई है तथा साहित्य और पत्रकारिता के बीच दूरी बढ़ी है। तब दशरथ प्रसाद द्विवेदी जैसे योद्धा पत्रकार के प्रेरक विचार वर्तमान पत्रकार पीढ़ी के लिए अनुकरणीय जान पड़ते हैं।
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