लोकमान्य, अर्थात वह व्यक्ति जिसे लोग अपना नेता
मानते हों। यह उपाधि बाल गंगाधर तिलक को भारत के स्वाधीनता प्रेमियों ने दी थी।
लोकमान्य ने बंग-भंग आंदोलन के दौरान भारत के स्वाधीनता संग्राम को मुखर रूप
प्रदान किया था। अंग्रेजों की विभाजन नीति ने सबसे पहले बंगाल को ही सांप्रदायिक
आधार पर विभाजन करने की योजना बनाई। जिसे हम लोग बंग-भंग के नाम से जानते हैं।
लार्ड कर्जन की इस नीति का विरोध करने वालों में लोकमान्य तिलक प्रमुख व्यक्ति थे।
तिलक ने बंग-भंग आंदोलन के माध्यम से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की राजपरस्त
नीति का विरोध किया और कांग्रेस को स्वराज्य प्राप्ति का मंच बनाया।
लोकमान्य तिलक का जन्म 23 जुलाई, 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी में हुआ था।
वह भारत की उस पीढ़ी के व्यक्ति थे जिन्होंने आधुनिक कालेज की शिक्षा पाई। संस्कृत
के प्रकांड पंडित, देशभक्त एवं जन्मजात योद्धा तिलक भारत में स्वदेशी, स्वराज्य एवं स्वसंस्कृति को पुनः
स्थापित करने के लिए आजीवन प्रयासरत रहे। सन 1885 में अंग्रेज अधिकारी हयूम के नेतृत्व
में स्थापित कांग्रेस नागरिक सुविधाओं के लिए प्रस्ताव पारित करने और अनुनय-विनय
करने तक ही सीमित थी। जिसे लोकमान्य तिलक ने सन 1905 के बाद से राष्ट्रवादी स्वरूप प्रदान
किया और ‘‘स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और हम इसे प्राप्त करके रहेंगे‘‘ का नारा दिया। जिसके बाद कांग्रेस दो
दलों में विभाजित हो गई नरम दल एवं गरम दल। गरम दल का नेतृत्व कर रहे थे
लाल-बाल-पाल।
लाल-बाल-पाल के क्रांतिकारी नेतृत्व ने
भारत के स्वाधीनता आंदोलन को महत्वपूर्ण दिशा दी। बंगाल विभाजन को इसका प्रेरक कहा
जा सकता है। बंगाल के विभाजन को लोकमान्य तिलक ने एक वरदान बताया था क्योंकि इसने
राष्ट्र को एकताबद्ध करने की चेतना उत्पन्न कर दी थी। 16 अक्टूबर, 1905 का दिन जब बंगाल विभाजन की योजना को
व्यावहारिक रूप दिया गया, इसे ‘शोक दिवस‘ के रूप में मनाया गया। उस दिन चूल्हे नहीं जले, लोग नंगे पांव गलियों में निकल आये, उन्होंने एक दूसरे को लाल राखी बांधी।
षाम को कलकत्ता के टाउन हाल में विराट सभा हुई, जिसमें ब्रिटिश माल के बहिष्कार का
प्रस्ताव पास हुआ और तय किया गया कि जब तक यह घृणित योजना रदद न हो जाए आंदोलन
थमेगा नहीं। तिलक के नेतृत्व में सारा राष्ट्र बंगाल की रक्षा के लिए उठ
खड़ा हुआ। लोकमान्य चार सूत्री कार्यक्रम बहिष्कार, स्वदेशी, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वराज आंदोलन के
माध्यम से देश को जागृत करने का कार्य कर रहे थे। भारतवासियों को बहिष्कार आंदोलन
का मर्म समझाते हुए तिलक ने ‘केसरी‘ के संपादकीय लिखा था-
‘‘लगता है कि बहुत से लोगों ने बहिष्कार आंदोलन के महत्व को समझा नहीं। ऐसा आंदोलन आवश्यक है, विशेषकर उस समय जब एक राष्ट्र और उसके विदेशी शासकों में संघर्ष चल रहा हो। इंग्लैंड का इतिहास इस बात का ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत करता है करता है कि वहां की जनता अपने सम्राट का कैसे नाकों चने चबवाने के लिए उठ खड़ी हुई थी, क्योंकि सम्राट ने उनकी मांगे पूरी करने से इंकार कर दिया था। सरकार के विरूद्ध हथियार उठाने की न हमारी शक्ति है न कोई इरादा है। लेकिन देश से जो करोड़ों रूपयों का निकास हो रहा है क्या हम उसे बंद करने का प्रयास न करें। क्या हम नहीं देख रहे हैं कि चीन ने अमेरिकी माल का जो बहिष्कार किया था, उससे अमेरिकी सरकार की आंखें खुल गईं। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है कि एक परतंत्र राष्ट्र, चाहे वह कितना ही लाचार हो, एकता साहस और दृढ़ निश्चय के बल पर बिना हथियारों के ही अपने अंहकारी शासकों को धूल चटा सकता है। इसलिए हमें विश्वास है कि वर्तमान संकट में देश के दूसरे भागों की जनता बंगालियों की सहायता में कुछ भी कसर उठा न रखेगी।“
भारत में स्वदेशी उपभोग के विचार को
सर्वप्रथम प्रतिपादित करने वाले लोकमान्य तिलक ही थे, जिस स्वदेशी की राह पर आगे चलकर गांधी
जी भी चले। तिलक ने स्वदेशी और बहिष्कार आंदालन के राजनीतिक महत्व को उजागर किया।
उन्होंने लोगों से कहा कि चाहे कुछ भी त्याग करना पड़े, वे स्वदेशी का उपभोग करें। अगर कोई
भारतीय वस्तु उपलब्ध न हो तो उसके स्थान पर गैरब्रिटिश वस्तु इस्तेमाल में लाएं।
उन्होंने लिखा-
‘‘ब्रिटिश सरकार चूंकि भारत में भय से मुक्त है, इससे उसका सिर फिर गया है और वह जनमत की नितान्त उपेक्षा करती है। वर्तमान आंदालन से जो एक सार्वजनिक मानसिकता उत्पन्न हो गई है, उससे लाभ उठाकर हमें एक ऐसे केन्द्रीय ब्यूरो का संगठन करना चाहिए जो स्वदेशी माल और गैरब्रिटिश माल के बारे में जानकारी एकत्रित करे। इस ब्यूरो की शाखाएं देश भर में खोली जाएं, भाषण और मीटिंगों द्वारा आंदोलन के उद्देश्य की व्याख्या की जाये और नई दस्तकारियां भी लगाई जाएं।“
लोकमान्य तिलक को भारतीय राष्ट्रवाद का
जनक भी कहा जाता है। उन्होंने भारत के सांस्कृतिक-धार्मिक उत्सवों को सार्वजनिक
रूप से मनाने की शुरुआत की। गणेश उत्सव और शिवाजी उत्सव के माध्यम से हिंदू समाज
अभूतपूर्व रूप से जाग्रत और भावनात्मक रूप से एक हुआ। समस्त हिंदू समाज ने
जातियों-उपजातियों को छोड़ गणेश उत्सवों के कार्यक्रम में भाग लिया। लोकमान्य तिलक
के जीवनीकार टी.वी पर्वते ने गणेश उत्सव कार्यक्रमों की सफलता का इन शब्दों में
वर्णन किया है-
‘‘तिलक और उनके सहयोगियों की विलक्षण सूझ-बूझ और संगठन शक्ति इसमें निहित थी कि उन्होंने गणेश उत्सव को जनता के बौद्धिक, सांस्कृतिक और कलात्मक उन्नयन के लिए एक राष्ट्रीय जनवादी आंदोलन में परिणत कर दिया। लगता है कि लोग ऐसे ही आंदोलन के लिए आतुर से थे क्योंकि यह तुरंत ही अपना लिया गया और जनसाधारण को यह बहुत ही भाया। ब्राहमणों, मराठों, महारों- सभी ने इसे अपना लिया और वे एक दूसरे से खुलकर मिलने लगे।“
लोकमान्य ने भारत की सुप्त जनता को
जाग्रत कर स्वाधीनता की लड़ाई के लिए तैयार किया। वे जिस भी भूमिका में रहे
उन्होंने राष्ट्रवादी आंदोलन की अलख जगाए रखी। क्रांतिकारी, पत्रकार अथवा षिक्षक सभी भूमिकाओं में
वे भारत की स्वाधीनता, स्वसंस्कृति व स्वदेशी की स्थापना के लिए अहोरात्र लगे रहे।
1 अगस्त, 1920 को लोकमान्य तिलक का आकस्मिक निधन हो गया। परंतु, जिन आदर्शों के लिए वे जिये वह शाश्वत
हैं। जिस राष्ट्र के लिए उन्होंने ‘स्वाधीनता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है' का नारा दिया आज वह स्वतंत्र और दृढ़
है। स्वदेशी, स्वशिक्षा, भारतीय संस्कृति के उत्थान के लिए उन्होंने जो प्रयास किए वे आज भी
प्रासंगिक हैं। उनके मार्ग का अनुसरण अथवा अनुकरण करना ही लोकमान्य तिलक को सच्ची
श्रद्धांजलि होगी।
अच्छा लेख लिखा है.(वर्ड विरिफ़िकेशन हटा लें तो अच्छा रहेगा)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (12-08-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!