भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में 19वीं सदी का अंतिम दशक एवं बीसवीं सदी का पहला दशक मील का पत्थर
साबित हुए। यह समय देश में राजनीतिक, साहित्यिक एवं पत्रकारीय सुदृढ़ता
के दशक माने जाते हैं। यह वह दौर था जब भारत की सुप्त चेतना जाग्रत हो रही थी, जागरण का यह काम कर रहे थे देशभक्त पत्रकार
एवं क्रांतिकारी। उस दौर में प्राय क्रांतिकारी और पत्रकार एक दूसरे के पूरक थे।
यह
दौर था तिलक युग। जब पत्रकारिता ने जन-जन में स्वदेशी एवं स्वतंत्रता की अलख जगाई
थी। तिलक स्वयं पत्रकार थे, ‘मराठा' एवं ‘केसरी' माध्यम से तिलक ने देश के सरोकारों को जानने का काम किया था। उसी
दौर के पत्रकार थे पं. माधवराव सप्रे।
माधवराव
सप्रे का जन्म मध्य प्रदेश के दमोह जिले
के पथरिया ग्राम में 19 जून, 1871 को हुआ था। चार भाइयों में सबसे
छोटे थे। उनके पिता ने खराब आदतों के चलते घर की समस्त संपत्ति नष्ट कर दी। घर
चलना कठिन हो गया था, जिसके
बाद बड़े भाई रामचन्द्रराव ने परिवार का संचालन किया। माधवराव दो वर्ष के ही थे कि बड़े भाई
रामचन्द्रराव का निधन हो गया। जिसके बाद मंझले भाई बाबूराव ने विपरीत परिस्थितियों
में परिवार के खर्चों को वहन करने के लिए नौकरी की। जब माधवराव चार वर्ष के थे बाबूराव ने उन्हें
बिलासपुर बुला लिया। बिलासपुर में ही माधवराव ने मिडिल स्कूल तक की शिक्षा ग्रहण की। सन 1887 में उन्होंने मिडिल की परीक्षा पास
की। बिलासपुर में हाईस्कूल नहीं था, हाईस्कूल पढ़ने के लिए उनको रायपुर
भेजा गया। माधवराव ने हिंदी की सेवा का प्रण रायपुर में ही लिया था।
रायपुर की धरती
ने उनको हिंदी सेवा की जो प्रेरणा दी वह जीवन पर्यंत कायम रही।
माधवराव
सप्रे का विवाह सन 1889 में हुआ, इसी वर्ष उन्हें एंट्रेंस की
परीक्षा भी देनी थी। परंतु ऐन वक्त पर वे बीमार पड़ गए जिस कारण वे 1890 में एंट्रेंस की परीक्षा न दे सके।
जिसके बाद वे आगे की पढ़ाई के लिए जबलपुर चले गए। वहां उन्होंने अपने पाठ्यक्रम के
अलावा विभिन्न गंभीर विषयों का अध्ययन किया। किंतु, इस दौरान उनको दो दुखद घटनाओं को
सहना पड़ा। एक तो वे बीमार पड़ गए, दूसरे उनकी माता का देहांत हो गया।
उस समय उनके ससुर की इच्छा थी कि वे रायपुर में ही तहसीलदार की नौकरी स्वीकार कर
लें। उन्होंने इसके लिए उच्च अधिकारियों को राजी भी कर लिया था किंतु, माधवराव का मन नौकरी में नहीं पत्रकारिता में था।
उस
दौरान देश में स्वतंत्रता की आंधी चारों ओर चल रही थी। लोकमान्य तिलक के ‘केसरी' और ‘मराठा' जैसे पत्रों के माध्यम से स्वदेशी एवं स्वतंत्रता की अग्नि प्रखर
हो रही थी। माधवराव भी पत्रकारिता के क्षेत्र में आना चाहते थे, किंतु पत्रकारिता उस समय में आज की भांति व्यवसाय
नहीं था। जिससे लाभ अर्जित किया जा सके। अतः उन्होंने पीडब्ल्यूडी में ठेकेदारी की
उनको इस धंधे में नुकसान ही हुआ। वे अपने भाई पर भी अत्यधिक निर्भर नहीं रहना
चाहते थे। एक दिन उन्होंने पत्नी से कुछ जेवर लिए और ग्वालियर के लिए चल पड़े और
ग्वालियर में ही एफ.ए में दाखिला ले लिया। इस कठिन वक्त में ही उनको एक और आघात सहन
करना पड़ा। ग्वालियर में ही उनको पत्नी के देहांत की सूचना मिली। माधवराव के लिए यह दिन कितने संघर्ष के रहे
होंगे यह समझना कठिन नहीं है। उन्होंने दुख को सहते हुए भी अपनी पढ़ाई जारी रखी।
सन 1898 में
उन्होंने बी.ए की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने अपने भाई के समझाने पर
दूसरा विवाह कर लिया। दूसरी पत्नी पार्वती भी सुलक्षणा थीं। वे उनके समस्त कार्यों
में उनको सहयोग करती थीं।
सन
1899
में उन्होंने पेंड्रा रोड
के राजकुमार कालेज में अध्यापन कार्य शुरू किया। किंतु, अध्यापन कार्य उनको संतुष्ट नहीं
करता था। पत्रकारिता की ललक उनके मन में अब भी जीवित थी, जिसके लिए वे नौकरी के माध्यम से धन
संग्रह कर रहे थे। सन 1900 में
उनकी परिकल्पना ‘छत्तीसगढ़ मित्र' मासिक पत्रिका के रूप में साकार हुई। उनके मित्र वामनराव लाखे
पत्रिका के प्रकाशक बने एवं रामराव चिंचोलकर ने उनके साथ संपादक का दायित्व
संभाला।
माधवराव
सप्रे ने ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ के प्रवेशांक में पत्रिका के उद्देश्यों को ‘आत्म परिचय' शीर्षक के अंतर्गत स्पष्ट करते हुए
लिखा-
‘‘सम्प्रति छत्तीसगढ़ विभाग को छोड़ ऐसा एक भी प्रांत नहीं है जहां दैनिक, साप्ताहिक, मासिक या त्रैमासिक पत्र प्रकाशित न होता हो। इसमें कुछ सन्देह नहीं कि सुसम्पादित पत्रों के द्वारा हिंदी भाषा की उन्नति हुई है। अतएव यहां भी ‘छत्तीसगढ़ मित्र' हिन्दी भाषा की उन्नति करने में विशेष प्रकार से ध्यान दे। आजकल भाषा में बहुत सा कूड़ा-कर्कट जमा हो रहा है, वह न होने पावे इसलिए प्रकाशित ग्रंथों पर प्रसिद्ध मार्मिक विद्वानों के द्वारा समालोचना भी कहें।" (शब्द सत्ता, मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, विजयदत्त श्रीधर)
माधवराव सप्रे ने ‘छत्तीसगढ़
मित्र‘ का
प्रकाशन छत्तीसगढ़ क्षेत्र में हिंदी एवं शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए ही किया
था। ‘छत्तीसगढ़ मित्र' ने इस उद्देश्य को पूरा भी किया। किंतु, ‘छत्तीसगढ़ मित्र' को तत्कालीन जमीदारों और राजाओं की
ओर से अपेक्षित सहयोग नहीं प्राप्त हुआ। इस व्यथा को स्पष्ट करते हुए ‘छत्तीसगढ़ मित्र' संपादक ने लिखा-
‘‘अत्यन्त शोक और कष्ट से कहना पड़ता है कि मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ विभाग में राजा-महाराजा, श्रीमान तथा जमींदारों की इतनी विपुलता होने पर भी उनमें कोई भी विद्योतेजन की ओर यथावश्यक ध्यान नहीं देते। वे इस बात पर विचार नहीं करते कि विद्या की उन्नति करने में जब तक वे उदासीन बने रहेंगे तब तक समाज की प्रगति नहीं हो सकती।" (शब्द सत्ता, मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, विजयदत्त श्रीधर)
छत्तीसगढ़
मित्र‘ को
आर्थिक मोर्चे पर काफी संघर्ष करना पड़ता था, फिर भी माधवराव जी ने पत्रकारिता के मानदंडों से कभी समझौता नहीं किया। पत्र में
प्रकाशित सामग्री के प्रति वे पूर्ण सचेत रहते थे। संवाददाताओं को भी वे यही सत्य
एवं तथ्य पर आधारित समाचार देने के लिए ही कहते थे। जिसका उदाहरण है ‘चाहिए' शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित यह
विज्ञापन-
‘‘छत्तीसगढ़ मित्र' के लिए हिन्दुस्थान के बड़े-बड़े नगरों तथा राज संस्थानों, विशेषतः छत्तीसगढ़ विभाग के प्रायः संपूर्ण देशी रजवाड़ों तथा जमींदारियों से चतुर और विश्वास करने योग्य संवाददाता चाहिए। संवाददाताओं को स्मरण रहे कि सत्य-सत्य समाचार भेजें झूठ-मूठ किसी पर आक्षेप या गपोड़ी कपोल-कल्पित बातें कदापि न लिखें।" (शब्द सत्ता, मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, विजयदत्त श्रीधर)
माधवराव
सप्रे एवं साथियों ने ‘छत्तीसगढ़ मित्र' को विशेष प्रयासों से दो वर्ष तक
प्रकाशित करना जारी रखा। आय तो होती नहीं थी, लेकिन जो कुछ भी चन्दा अथवा
विज्ञापन से प्राप्त होता था वे उसकों भी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर देते थे।
वर्ष 1901 का
आय-व्यय का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए संपादक ने लिखा था-
‘‘मित्र' के निकलने से पहले ही हमने सोच लिया था कि हमें घाटे के सिवाय कुछ लाभ न होगा। परंतु छत्तीसगढ़ में विद्या की वृद्धि, स्वदेश में ज्ञान का प्रसार, नागरी की उन्नति और हिन्दी साहित्य में सत्य समालोचना द्वारा सत्य विचार की जागृति करने के हेतु जिस समय हमने ‘मित्र‘ को जन्म दिया उसी समय हमने यह भी दृढ़ संकल्प कर लिया था कि इस कार्य में चाहे जैसी हानि और कठिनाई सहनी पड़े पर हम तीन वर्ष तक इसे अवश्य चलावेंगे।" (शब्द सत्ता, मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, विजयदत्त श्रीधर)
‘छत्तीसगढ़ मित्र' के दो वर्ष बीत गए किंतु वह घाटे में ही चलता रहा। जिसके कारण माधवराव सप्रे एवं साथियों को पत्र बंद करने का
कठिन निर्णय लेना पड़ा। अपनी व्यथा को उन्होंने इन शब्दों में लिखा-
‘‘हमारे संकल्पानुसार परमात्मा की कृपा से दो वर्ष बीत गए, और हमारे दुर्भाग्य से दोनों वर्ष हमें घाटा ही उठाना पड़ा। अब यह तीसरा वर्ष है। देखना चाहिए कि इसका क्या परिणाम होता है? यदि इस वर्ष भी ऐसे ही घाटा उठाना पड़ा तो समझ लिजिए कि आपके प्रिय ‘मित्र‘ के सौ वर्ष पूरे हो चुके और फिर बड़े दुख से लिखना पड़ता है कि यही इसकी आयु का अंतिम वर्ष भी होगा।" (शब्द सत्ता, मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, विजयदत्त श्रीधर)
शुरूआती
दो वर्षों की भांति ही ‘छत्तीसगढ़ मित्र' तीसरे वर्ष भी घाटे में ही रहा। जिसके कारण सप्रे जी को प्रकाशन
बंद करने का फैसला करना पड़ा। यह मासिक पत्रिका बंद तो हो गई किंतु छत्तीसगढ़ में
साहित्य, पत्रकारिता
एवं भाषा के लिए अपना महत्वपूर्ण योगदान दे गई।
‘छत्तीसगढ़ मित्र' के 13 अप्रैल, 1907 में नागपुर से शुरू होने वाले ‘हिंदी केसरी' में भी सप्रे जी ने अपना योगदान दिया। जिसने विदर्भ क्षेत्र में हिंदी पत्रकारिता के प्रचार-प्रसार के लिहाज से महत्वपूर्ण योगदान दिया। माधवराव सप्रे जी स्वयं को आजीवन पत्रकारिता के
क्षेत्र में होमते रहे। सन 1920 में माखनलाल चतुर्वेदी जी के संपादन में प्रकाशित होने वाले पत्र ‘कर्मवीर' में भी उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से
अपना योगदान दिया।
माधवराव
सप्रे का जीवन पत्रकारिता, साहित्य एवं भाषा के उत्थान को
समर्पित था। हिंदी पत्रकारिता के विकासक्रम में माधवराव सप्रे का महत्वपूर्ण योगदान था, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। उनका
समस्त जीवन संघर्षपूर्ण ही रहा किंतु, वे कभी मुसीबतों के वक्त भी पीछे
नहीं हटे। पत्रकारिता के क्षेत्र की वर्तमान एवं आगामी पीढ़ीयों के लिए उनका समस्त जीवन
अनुकरणीय है।