भारत में पत्रकारिता और राष्ट्रवाद
एक ही धारा में प्रवाहित होने वाले जल के समान हैं। भारतीय पत्रकारिता ने सदैव
राष्ट्रवाद को ही मुखरित करने का कार्य किया है। पत्रकारिता के इसी राष्ट्रवादी
प्रवाह को गति देने वाले पत्रकारों में एक महत्वपूर्ण नाम पं. दीनदयाल उपाध्याय का
भी है। भारत की राजनीति को एक ध्रुव से दो ध्रुवीय करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा
करने वाले दीनदयाल उपाध्याय ने पत्रकारिता को अपने विचारों के प्रसार का माध्यम
बनाया था। पत्रकारिता किस प्रकार से जनमत निर्माण करने में सहायक हो सकती है, यह दीनदयाल जी ने
बखूबी समझा था।
दीनदयाल जी का जन्म आश्विन कृष्ण
त्रयोदशी, सोमवार
सम्वत 1973 को, ईस्वी अनुसार 25 सितंबर 1916 को राजस्थान के
धनकिया नामक ग्राम में हुआ था। उनका जन्म ननिहाल में हुआ था। जबकि उनका पैतृक निवास
मथुरा के फराह नामक गांव में है। उनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय तथा माता
का नाम रामप्यारी था। परिवार में दीनदयाल जी से छोटा एक भाई और था जिसका नाम शिवदयाल
था। किंतु, दीनदयाल जी
को परिवार का स्नेह अधिक समय तक न मिल सका। बाल्यावस्था में ही माता-पिता की मृत्यु
होने के कारण पारिवारिक शून्यता में ही उन्हें जीवन व्यतीत करना पड़ा। जब
माता-पिता उनसे बिछड़े तब उनकी आयु मात्र आठ वर्ष ही थी। दुर्भाग्य ऐसा था कि कुछ
ही समय बाद दीनदयाल जी के भाई शिवदयाल की भी निमोनिया से पीडि़त होने के कारण
मृत्यु हो गई।
माता-पिता के अभाव में उनका
पालन-पोषण उनके मामा ने किया। जो राजस्थान के गंगापुर रेलवे स्टेशन पर मालगार्ड के
रूप में कार्यरत थे। अपनी प्रारंभिक शिक्षा दीनदयाल जी ने गंगापुर में ही पूर्ण
की। उसके बाद उन्होंने सीकर, कानपुर एवं आगरा आदि स्थानों पर रहकर आगे की पढ़ाई पूरी की। कालेज
की पढ़ाई के दौरान ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आए और पूरी तन्मयता
से संघ कार्य में जुट गए। कालेज की पढ़ाई के बाद वे किसी नौकरी अथवा व्यापार में
संलग्न न होकर संघ कार्य में ही रम गए। उनके मामा ने उनसे शादी का कई बार आग्रह किया
लेकिन वे बड़ी ही चालाकी से शादी के प्रस्तावों को नकार देते थे। शायद राष्ट्र की
सेवा का व्रत लेकर ही वे जन्मे थे, जिस कारण सभी सांसारिक बंधनों से दूर वे केवल भारत माता
के बंधन में ही रहे। उन्होंने भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्र के लिए अथक कार्य किया।
विवाह न करने को लेकर वे बड़े ही तर्कपूर्ण ढंग से अपनी बात कहा करते थे। इस संबंध
में उन्होंने अपने विचार ‘जगद्गुरू शंकराचार्य' पुस्तक में व्यक्त किए
हैं-
‘‘हे मां पितृऋण है और उसी को चुकाने के लिए मैं संन्यास ग्रहण करना चाहता हूं। पिताजी ने जिस धर्म को जीवन भर निभाया यदि वह धर्म नष्ट हो गया तो बताओ मां! क्या उन्हें दुख नहीं होगा? उस धर्म की रक्षा से ही उन्हें शांति मिल सकती है और फिर अपने बाबा उनके बाबा और उनके भी बाबा की ओर देखो। हजारों वर्ष का चित्र आंखों के समक्ष उपस्थित हो जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने धर्म की रक्षा के लिए स्वयं के जीवन को दांव पर लगा दिया, कौरव-पांडवों में युद्ध करवाया। अपने जीवन में वे धर्म की स्थापना कर गए, पर लोग धीरे-धीरे भूलने लगे। शाक्यमुनि के काल तक फिर धर्म में बुराईयां आ गईं। उन्होंने भी बुराईयों को दूर करने का प्रयत्न किया, पर अब आज उनके सच्चे अभिप्राय को भी लोग भूल गए हैं। मां! इन सब पूर्वजों का हम सब पर ऋण है अथवा नहीं?
यदि हिन्दू समाज नष्ट हो गया, हिन्दू धर्म नष्ट हो गया तो फिर तू ही बता मां, कोई दो हाथ दो पैर वाला तेरे वश में हुआ तो क्या तुझे पानी देगा ? कभी तेरा नाम लेगा ?"
ऐसे समय में जब देश को सशक्त राजनीतिक
विकल्प एवं विपक्ष की आवश्यकता थी, तब दीनदयाल उपाध्याय ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ
मिलकर देश की राजनीति को दो ध्रुवीय करने का कार्य किया था। उन्होंने राजनीति को
समाज कल्याण के मार्ग के रूप में चुना था। एकात्म मानववाद के रचयिता दीनदयाल
उपाध्याय ने गांधी के विचार को पुनःव्याख्यायित करते हुए अंत्योदय की बात की।
दीनदयाल जी ने अपने विचारों को
पत्रकारिता के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया था। वह पत्रकारिता जो
आजादी के उपरांत अपने लिए किसी लक्ष्य अथवा सन्मार्ग की तलाश में थी। उसे दीनदयाल
उपाध्याय ने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से राह दिखाने का कार्य किया था। सन् 1947 में दीनदयाल जी ने
राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड की स्थापना की थी। जिसके अंतर्गत स्वदेश, राष्ट्रधर्म एवं
पांचजन्य नामक पत्र प्रकाशित होते थे। राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड ने वचनेश
त्रिपाठी, महेन्द्र
कुलश्रेष्ठ, गिरीश
चन्द्र मिश्र, अटल बिहार
वाजपेयी, राजीव लोचन
अग्निहोत्री जैसे श्रेष्ठ पत्रकारों को तैयार किया था। पं. दीनदयाल ने ‘पांचजन्य‘, ‘राष्ट्रधर्म‘ एवं ‘स्वदेश‘ के माध्यम से
राष्ट्रवादी जनमत निर्माण करने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। उनके लेख पांचजन्य के
घोष वाक्य के अनुरूप ही राष्ट्र जागरण का शंखनाद करते थे। राष्ट्रीय एकता के मर्म
को समझाते हुए उन्होंने लिखा था-
‘‘यदि हम एकता चाहते हैं तो भारतीय राष्ट्रीयता जो हिंदू राष्ट्रीयता है तथा भारतीय संस्कृति जो हिंदू संस्कृति है उसका दर्शन करें। उसे मानदंड बनाकर चलें। भागीरथी की पुण्यधाराओं में सभी प्रवाहों का संगम होने दें। यमुना भी मिलेगी और अपनी सभी कालिमा खोकर गंगा में एकरूप हो जाएगी।"(पांचजन्य, 24 अगस्त, 1953)
दीनदयाल उपाध्याय ने देश में बदलाव
के लिए नारे एवं बेवजह प्रदर्शनों को कभी प्राथमिकता नहीं दी। देश की समस्याओं के
निवारण के लिए वह पुरूषार्थ को ही महत्वपूर्ण मानते थे। जिसका उल्लेख करते हुए
उन्होंने लिखा-
‘‘आज देश के व्याप्त अभावों की पूर्ति के लिए हम सब व्यग्र हैं। अधिकाधिक परिश्रम आदि करने के नारे भी सभी लगाते हैं। परंतु नारों के अतिरिक्त वस्तुतः अपनी इच्छानुसार सुनहले स्वप्नों, योजनाओं तथा महत्वाकांक्षाओं के अनुकूल देश का चित्र निर्माण करने के लिए उचित परिश्रम और पुरूषार्थ करने को हममें से पिचानवे प्रतिशत लोग तैयार नहीं है। जिसके अभाव में यह सुंदर-सुंदर चित्र शेखचिल्ली के स्वप्नों के अतिरिक्त कुछ और नहीं" (पांचजन्य, आश्विन कृष्ण 2, वि. सं. 2007)
सन 1947 में भारत राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हो गया
था। किंतु, अंग्रेजों
के जाने के पश्चात भी औपनिवेशिक संस्कृति के अवशेष भारत के तथाकथित बुर्जुआ वर्ग
पर हावी रहे। इस मानसिकता को राष्ट्र के सांस्कृतिक उत्थन में बाधक बताते हुए
दीनदयाल उपाध्याय ने लिखा था-
‘‘राष्ट्रभक्ति की भावना को निर्माण करने और उसको साकार स्वरूप देने का श्रेय भी राष्ट्र की संस्कृति का ही है तथा वही राष्ट्र की संकुचित सीमाओं को तोड़कर मानव की एकात्मता का अनुभव कराती है। अतः संस्कृति की स्वतंत्रता परमावश्यक है। बिना उसके राष्ट्र की स्वतंत्रता निरर्थक ही नहीं, टिकाऊ भी नहीं रह सकेगी।" (पांचजन्य, भाद्रपद कृष्ण 9, वि. सं. 2006)
दीनदयाल उपाध्याय का स्पष्ट मत था कि
राष्ट्रीय एकता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए राष्ट्र की सांस्कृतिक एकात्मता भी
आवश्यक है। अपने विचारों को उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त किया था-
‘‘भारत में एक ही संस्कृति रह सकती है, एक से अधिक संस्कृति का नारा देश के टुकड़े-टुकड़े करके हमारे जीवन का विनाश कर देगा। अतः आज लीग का द्वि-संस्कृतिवाद, कांग्रेस का प्रच्छन्न द्विसंस्कृतिवाद तथा साम्यवादियों का बहुस्ंस्कृतिवाद नहीं चल सकता। आज तक एक संस्कृतिवाद को संप्रदायवाद कहकर ठुकराया गया किंतु अब कांग्रेस के विद्वान भी अपनी गलती समझकर इस एक संस्कृतिवाद को अपना रहे हैं। इसी भावना और विचार से भारत की एकता तथा अखंडता बनी रह सकती है तथा तभी हम अपनी संपूर्ण समस्याओं को सुलझा सकते हैं।" (राष्ट्रधर्म, शरद पूर्णिमा, वि. सं 2006)
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने राष्ट्रवादी
विचारधारा के प्रचार-प्रसार हेतु राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना की थी। अपने इस
ध्येय पथ पर वे संपूर्ण जीवन अनवरत चलते रहे। जीवन में अनेकों दायित्वों का
निर्वाह करते हुए भी दीनदयाल जी ने अपने पत्रकारीय जीवन के प्रवाह को कहीं रूकने नहीं
दिया था। स्वतंत्रता के पश्चात जब भारत का पत्रकारिता जगत लक्ष्यविहीन अनुभव कर
रहा था, तब दीनदयाल
उपाध्याय ने पत्रकारिता को उसका ध्येय मार्ग दिखलाने का कार्य किया था।
हिंदुत्व, भारतीयता, अर्थनीति, राजनीति, समाज-संस्कृति आदि
अनेकों महत्वपूर्ण विषयों पर उनका गहरा अध्ययन था। उन्होंने पत्रकारिता के अलावा
अनेकों पुस्तकें भी लिखीं जैसे- राष्ट्र चिंतन, सम्राट चन्द्रगुप्त, भारतीय अर्थनीति- विकास की एक दिशा, एकात्म मानववाद
आदि। यह पुस्तकें राष्ट्रहित में जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं।
11 फरवरी, सन 1968
को
मुगलसराय रेलवे स्टेषन के करीब वे मृत पाए गए। उनकी मृत्यु का कारण आज भी संदिग्ध
है। दीनदयाल उपाध्याय ने राष्ट्रवादी पत्रकारिता के प्रवाह को जिस प्रकार आगे
बढ़ाया था वह अनुकरणीय है।
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