Tuesday, February 15, 2011

माओवादी हिंसा के प्रतिनिधि

 जिन लोगों को प्रधानमंत्री देश कि आतंरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताते हैं. जिनकी विचारधारा बन्दूक कि नली से सत्ता तक पहुँचने कि बात करती है. इस अंधी हिंसात्मक विचारधारा के प्रतिनिधि विनायक सेन को लेकर देश के स्वयंभू बुद्धिजीवी लोग लोकतंत्र पर सवालिया निशान लगा रहे हैं. क्या इन बुद्धिजीविओं को माओवादी हिंसा में मारे गए जवानों कि माताओं के आसुओं पर तरस नहीं आता है. क्या इन्हें आदिवासिओं कि निर्मम हत्या होने पर दुःख नहीं होता है. जिस विचारधारा ने लोकतान्त्रिक नेता लिऊ श्यबाओ को नजरबन्द कर रखा है. म्यांमार में लोकतंत्र समर्थक नेता आन सां सूकी  वर्षों से जेल में बंद हैं. माओवादी और कथित तौर पर मार्क्सवादी विचारधारा कि इस वैश्विक हिंसा का पता नहीं है. सन २०५० में भारत में भी सत्ता पर पह्नुचने का स्वप्न देखने वाले माओवादी हमें कैसा भारत देंगे, यह इन बुद्धिजीविओं को सोचना ही चाहिए. क्या हमें चीन जैसा शासन चाहिए, या म्यांमार जैसा यह हमें ही विचार करना होगा. यह भारत ही है जहाँ विनायक सेन जैसे लोगों कि भी मुफ्त में पैरवी कि जा रही है. अजमल कसाब को भी सुनवाई का मौका दिया जा रहा है, ऐसा किसी माओवादी शासित देश से कल्पना भी नहीं कि जा सकती है. आज भी लोगों को चीन में थ्येन मेन चौक पर हुई सरकारी हिंसा एक त्रासदी के रूप में याद आती है. जिस चीन का औद्योगिक विकास श्रमिकों के शोषण के बल पर टिका है. जहाँ जनसँख्या
नियंत्रण के लिए सख्त प्रावधान लागू हैं. उस देश को अपना आदर्श मानने वाले लोगों को यह समझना चाहिए कि, दिल्ली कि तरह मनमानी कि आजादी उन्हें माओवादी शासन में नहीं मिल सकती है. देश के लिए सुरक्षा बलों के जवान अमूल्य संसाधन के समान हैं. उन जवानों का रक्त बहाने वाले माओवादी देश द्रोहियों से किसी मायने में भी कम नहीं है. आदिवासिओं की लाशों , देश के जवानों के शहीद होने पर और आश्रितों के आसुओं और दर्द से राजनीति नहीं कि जानी चाहिए. पिछड़ों कि आवाज उठाने के नाम पर पिछड़ों को ही मौत का द्वार दिखाने वाले मओवादिओं पर कोई कोताही नहीं बरती जानी चाहिए. इन देश द्रोही मओवादिओं कि आवाज उठाने वाले भी देश द्रोही कि ही भूमिका में हैं. किसी भी कार्य के पीछे एक विचारधारा होती है. इसी तरह इन स्वयंभू बुद्धिजीविओं ने मओवादिओं को वैचारिक पोषण देने का ठेका ले रखा है. यही भूमिका विनायक सेन कि भी थी. जिसकी जमानत याचिका को छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने भी खारिज कर दिया है. अब इन बुद्धिजीविओं को कोर्ट पर भी विश्वास नहीं और अब इन्होनें ने अदालत पर सवाल उठाने का प्रयास करना शुरू कर दिया है. अब यही लोग बताएं कि उनको जब देश कि लोकतांत्रिक व्यवस्था पर ही विश्वास नहीं है तो यह लोग कैसे शान्ति समर्थक हैं.

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