आगामी २५ फरवरी को रेल बजट संसद में पेश होने वाला है. जिसे रेल मंत्री ममता बनर्जी पेश करेंगी. जिनका लक्ष्य बंगाल की सत्ता को प्राप्त करना है. जिसकी राह रेल मंत्रालय से होकर भी गुजरती है. इसी के चलते ममता ने बंगाल को लेकर कुछ ज्यादा ही ममता दिखाई है. रेल मंत्रालय से जुडी सभी बड़ी परियोजनाओं को ममता ने बंगाल के लिए ही अधिक जरूरी पाया है. आगामी बजट में भी लगता नहीं ममता का बंगाल मोह दूर हो पायेगा. देश के सभी हिस्सों को एक करने वाली रेल, के पहिये समस्त देश में सामान रूप से नहीं दौड़ पा रहे हैं. इसका कारण रेल मंत्रालय की कमान क्षेत्रीय दलों के हाथ में होना है. राम विलास पासवान, नितीश कुमार, लालू यादव, जार्ज फ़र्नान्डिस आदि नेताओं के हाथ में रही है जो क्षेत्रीय दलों के नेता रहे हैं. गठबंधन राजनीति का लाभ रेल मंत्रियों ने बखूबी उठाया है. इसी का कारण है की छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और पूर्वोत्तर राज्यों में रेल नेटवर्क अन्य राज्यों की अपेक्षा के कमजोर है. गठबंधन सरकार में क्षेत्रीय दलों का जोर रेल मंत्रालय की मलाई को कब्जाना ही होता है. इसी के कारण रेल मंत्रालय अपने लक्ष्य को किसी भी पंचवर्षीय योजना में पूरा नहीं कर पाया है. देश से अंग्रेजों के जाने के बाद से केवल १०,००० किलोमीटर रेलमार्ग का विस्तार हो पाया है. जबकि ६०,००० किलोमीटर का रेल नेटवर्क तो हमें विरासत में ही मिला था. इस आंकड़े से हम जान सकते हैं की हमारी रेल की गति क्या रही है. अब हमें इस विचार करना होगा की रेल मंत्रालय केवल सफ़ेद हाथी बनकर ना रह जाए. यदि रेल मंत्रालय को घाटे से उबारना है तो इसको गठबंधन राजनीति का हथियार बनने से बचाना ही होगा. रेल मंत्रालय का अलग बजट होना भी, मंत्रियों को आकर्षित करता रहा है. रेल बजट को अलग करके इसे भी आम बजट में ही शामिल करना होगा. तभी इसका विकास संभव है. तभी भारतीय रेल राजनीतिक बाधा से हटकर विकास की पटरी पर दौड़ सकेगी.
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